दुनिया भर में हर साल सभी आयु वर्गों के लगभग 32 करोड़ लोग डिप्रेशन से पीड़ित होते हैं जो कि सभी बीमारियों से पीड़ित लोगों के 4.3 % हैं. लेकिन इनमें अधिकांश पीड़ित यह मानते ही नहीं कि वे डिप्रेशन या किसी मानसिक रोग से पीड़ित हैं. इसी लिए बहुत कम पीड़ित लोग चिकित्सा सहायता लेते हैं. डिप्रेशन के कारण लगभग 40 करोड़ लोग जो सभी आयु वर्गों के हैं, अपनी पूर्ण क्षमता के साथ कार्य नहीं कर पा रहे.ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2020 तक डिप्रेशन दुनियां में दूसरी सबसे बड़ी बीमारी होगी,जिसके कारण लोग अपनी सक्रिय भूमिका निभाने में असमर्थ होंगे.ऐसा भी देखा गया है कि लगभग 40% से 60% लोग जो गंभीर डिप्रेशन और शाइजोफ्रीनिया नामक मानसिक रोग से पीड़ित होते हैं,वे समय से पहले ही मर जाते हैं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 17 देशों में कराए गए विश्व मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण में यह पाया गया कि हर पांचवां व्यक्ति पिछले एक वर्ष में डिप्रेशन का शिकार हुआ. यह महिलाओं, 40 वर्ष से कम आयु के और शहरी लोगों में अधिक पाया गया. पुरुषों में इसका खतरा 50 % ज्यादा होता है .गम्भीर डिप्रेशन जिसमें व्यक्ति आत्महत्या तक कर लेता है,के कारण लगभग एक प्रतिशत मरीजों को आत्महत्या का ख़तरा बना रहता है.
डिप्रेशन और मानसिक रोगों की व्यापकता समय समय पर भौगोलिक स्थिति, क्षेत्र की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति के अनुसार बदलती रहती है. भारत में किए गए राष्ट्रीय अद्धययन में मानसिक विकारों जैसे की डिप्रेशन,चिंतित रहना तथा मादक द्रव्यों का सेवन आदि से लगभग 12 करोड़ लोग (कुल आबादी का 10%) से पीड़ित पाए गए हैं.इन में से हर 40 व्यक्तिओं में एक व्यक्ति डिप्रेशन से ग्रस्त है.डिप्रेशन की व्यापकता शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में पाई गई है तथा महिलाओं में अधिक देखी गई है.डिप्रेशन के कारण होने वाली आत्म हत्याएं पंजाब में सर्वाधिक हैं.
डिप्रेशन पीड़ितों की प्राथमिक देखभाल सम्बन्धी चिंताएं
व्यक्ति किसी भी आयु में डिप्रेशन का शिकार हो सकता है जैसे कि बचपन में दुर्व्यवहार और भेद भाव, सामाजिक बहिष्कार (अस्वीकृति) हम उम्रों का दवाब,पढाई का बोझ,किशोर अवस्था में किसी के द्वारा मजाक उड़ना,जीवन में घटी कुछ घटनाएं जैसे कि किसी प्रियजन की मृत्यु,संबंधों में समस्या,काम का तनाव, जीवन में अनिश्चितता,नौकरी न मिल पाना, आर्थिक बोझ और कर्जा आदि के कारण डिप्रेशन पैदा हो सकता है. चिंता और नशा भी इसके कारण हो सकते हैं. आत्महत्या इलाज पाने वालों में 15% को और इलाज न पाने वालों में उससे भी ज्यादा को होती हैं.पुरुषों की तुलना में महिलाएं दो गुना ज्यादा डिप्रेशन का शिकार बनती हैं.
डिप्रेशन की व्यापकता को प्राय: निम्न कारणों से कम करके आँका जाता है :
-मरीज प्राय: सक्रिय और संज्ञानात्मक लक्षणों को या तो अस्वीकार करते हैं या बहुत कम करके बतलाते हैं तथा जान बूझ कर शारीरिक लक्षणों को ही महत्व देते हैं जैसे कि लम्बे समय तक दर्द बने रहना, नींद में व्यवधान,थकान,और भूख में परिवर्तन
– सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के कारण जनता मानसिक रोगों को कम या बिलकुल स्वीकार नहीं करतीं.पीड़ित व्यक्ति अपने लक्षणों /स्थिति के बारे में बातें नहीं करना चाहता.
– कुछ ऐसे अवरोध होते हैं जिनके कारण प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर रोगी की पहचान नहीं हो पाती क्योंकि चिकित्सक पूरी तरह सक्षम नहीं होता या उसके पास रोग पहचानने के साधन नहीं होते.
शुरू में ही रोग की पहचान बहुर जरूरी है जिससे उसके जल्दी और देर में आने वाले दुष्परिणामों से बचा जा सके.युवा लोगों और उनके माता पिता को भी इतना ज्ञान होना चाहिए कि वे उनमें डिप्रेशन के लक्षणों को पहचान सकें.चिकित्सा कर्मियों को भी पता होना चाहिए कि चिंता एवं डिप्रेशन के कारण शारीरिक लक्षण पैदा हो सकते हैं.
डिप्रेशन ग्रस्त लोगों की पहचान कैसे करें:
समाज में डिप्रेशन ग्रस्त लोगों की पहचान करने के लिए कई सहदान उपलब्ध हैं. उदहारण के लिए सभी आयु वर्ग के लोगों के लिए कुछ प्रश्नावली तैयार की गईं हैं जिनमें लक्षणों को श्रेणीबद्ध किया गया है इनके साथ साथ विभिन्न परिस्थितियों के लिए अंक दिए जाते हैं.अंकों के सम्मिलित योग(स्कोर) के आधार पर डिप्रेशन तथा उसके कारणों की पहचान की जाती है तथा डिप्रेशन की स्थिति की श्रेणी निर्धारित की जाती है. इस प्रकार समाज में डिप्रेशन ग्रस्त लोगों की कुल संख्या का पता लगाया जाता है. उस संख्या के आधार पर दवा के प्रकार व उसकी गोलियों, केप्सूल आदि की आवश्यकता, चिकित्सकों तथा स्वस्थ्य कार्यकर्त्ताओं और उनके लिए जरूरी सामान व अन्य सुविधाओं को उपलब्ध करने का निर्णय लिया जा सकता है.इन प्रश्नावलियों में जंग पैमाना प्रश्नोत्तरी तथा होफ्किन सिमरम चैक लिस्ट-10 प्रमुख हैं.इन्हें कब और कैसे इस्तेमाल करें इस सम्बन्ध में पहले प्रशिक्षण लेना बहुत जरूरी होता है.
नशा मुक्ति केन्द्रों पर मरीज को उपचार के लिए ले जाते समय यह आशा की जाती है कि उपचार के साथ वह आपने सामजिक दायित्व निभाने और कार्य करने में सक्षम हो जायेगा जोकि वह उपचार होने तक करता भी है. लेकिन जैसेजैसे उपचार से उसे दूर किया जाता है, नशाखोरी के पहले जो कारक थे वे फिर से आने लगते हैं. इसके कारण दोबारा बीमारी वापस आने लगती है तथा पुन: उपचार शुरू करना पड़ता है.इस प्रकार डिप्रेशन भी एक दीर्घकालिक विकार है जिसके लक्षणों को मानसिक चिकित्सा, व्यवहार परिवर्तन सम्बन्धी प्रशिक्षण तथा सहायक समूह में भागीदारी से काम किया जा सकता है. यदि इनसे नियंत्रण न हो तो डिप्रेशन विरोधी दवाइयां देनी पड़ सकती हैं लेकिन संज्ञानात्मक उपचार नकारात्मक विचारों के बदलने में काफी सहायक होता है.