शब्दांकुर प्रकाशन

पुस्तक समीक्षा : नीली धूप में

रचनाकार : रामकिशोर उपाध्याय
समीक्षाकार : अरविंद कुमार सिंह

‘नीली धूप में’ चर्चित रचनाकार और भारतीय रेल सेवा के अधिकारी रहे श्री रामकिशोर उपाध्याय जी का कविता संग्रह है। इलाहाबाद और भारतीय रेल ये दोनों मेरे दिल के बहुत करीब हैं और इस काव्य संकलन का संबंध भी इन दोनों से है। इसका नामकरण भी एक इलाहाबादी ने किया है और इसकी भूमिका भाई हरिसुमन बिष्ट जी ने लिखी है, जिनसे मुझे शैलेश मटियानी जी ने पहली बार मिलवाया था। मटियानी जी का मैं बेहद स्नेह पात्र रहा और बिष्ट जी को भी वे बहुत मानते थे। रेल सेवा जन सेवा है। इसने हिंदी के महान आचार्य महावीर प्रसाद जैसे महारथी दिए जिनकी बदौलत हमारी यात्रा एक सम्मानजनक मोड़ तक पहुंची। बाद में यह धारा आगे बढ़ी और डा. दिनेश कुमार शुक्ल और श्री प्रेमपाल शर्मा से लेकर उपाध्याय  जी जैसे कई लोगों ने इसमें योगदान दिया है। लेकिन भारतीय रेल में कोई अधिकारी साहित्यिक यात्रा से जुड़ जाये तो केवल कागजो में उलझे रहने वाले बहुत से उच्च अधिकारियों को यह अच्छा नहीं लगता। इसके पीछे हीन भावना भी छिपी हो सकती है, लेकिन ऐसा है और यह मैं खुद तीन सालों तक रेल मंत्रालय में रहने के दौरान देख चुका हैं।

तो इस कविता संग्रह के लोकार्पण समारोह में मुझे हाजिर रहना था, लेकिन संसद की एक बैठक देर तक चलती रही और मेरा जाना संभव नहीं हो सका। फिर भी तब इसे सरसरी तौर पर पढ़ा था क्योंकि इस पर विचार भी रखना था मुझे। लेकिन बीते हफ्ते इसे पूरा पढ़ा। पिछले करीब एक दशक के दौरान बहुत से कवियों और कविताओं ने मुझे बहुत निराश किया था इस नाते कुछ चुनिंदा प्रिय नामों को छोड़ कर मैने कविता पढ़ना बंद कर दिया था। लेकिन लॉकडाउन के दौरान मैने कई कविता संग्रहों को पढ़ा और पाया कि मैने जो धारणा बनायी थी, वह गलत थी। इस दौर में हिंदी में कई लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं। व्यापक अनुभवों से संपन्न लोग भी और युवा भी। हां यह कहने में भी संकोच नहीं है कि कई लोग कूड़ा कचरा को भी साहित्य मनवाने में लगे रहते हैं। जो संकलन मुझे पसंद आए हैं, उन पर आने वाले समय में और लिखूंगा मौका निकाल कर।

उपाध्यायजी का कविता संग्रह नीली धूप में काफी ताकतवर रचनाओं का संकलन है। शीर्षक भले नीली धूप है लेकिन छांव और जीवन के हर रंग विद्यमान हैं। सबसे महत्व की बात यह है कि इसमें गांव की पगडंडियां और धूल भी है यानि राजपथ और धूलपथ दोनों, गांव भी हैं, शहर भी हैं। प्रेम भी है, नाराजगी भी। राजपथ बनाम धूलपथ, फौलाद, क्यों पूछते हैं, अतुल्य भारत समेत करीब सारी कविताएं मौजूदा हालात में हमें सोचने को विवश करती हैं। फिलहाल राजपथ बनाम धूलपथ कविता का अंश साझा कर रहा हूं-
धूल से सना हूं, झाड़िये पोछिये मत
हुजूर..बड़ी मुश्किल से
गांव से आया हूं शहर के निकट
जानता हूं लोग गले नहीं लगाएंगे
डरते हैं कपड़े मैले हो जायेंगे

मैं ही तो हूं देश का किसान और मजदूर
तभी तो कहता हूं हुजूर
भोला हूं और करता हूं काम झटपट…
सांझ को उड़ती धूल
और पसीने से रोज रहूंगा लथपथ
मुझे नहीं मालूम कहां है तुम्हारा वो राजपथ
नहीं मालूम कहां गड़े हैं
तंत्र के एक दो तीन या चार खंभे
हो गए हैं जहां खड़े खड़े खड़े गरीबों के साये लंबे।

शेष फिर कुछ और कविताएं साझा करूंगा। तब तक आप खुद इस किताब को खरीद कर पढिए।

लेखन

जागा लाखों करवटें, भीगा अश्क हज़ार।
तब जा कर मैंने किए, काग़ज काले चार।।

छोटा हूँ तो क्या हुआ, जैसे आँसू एक।
सागर जैसा स्वाद है, तू चखकर तो देख।।

मैं खुश हूँ औज़ार बन, तू ही बन हथियार।
वक़्त करेगा फ़ैसला, कौन हुआ बेकार।।

तू पत्थर की ऐंठ है, मैं पानी की लोच।
तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच।।

मैं ही मैं का आर है, मैं ही मैं का पार।
मैं को पाना है अगर, तो इस मैं को मार।।

ख़ुद में ही जब है ख़ुदा, यहाँ-वहाँ क्यों जाय।
अपनी पत्तल छोड़ कर, तू जूठन क्यों खाय।।

पाप न धोने जाउँगा, मैं गंगा के तीर।
मजहब अगर लकीर है, मैं क्यों बनूँ फ़क़ीर।।

सब-सा दिखना छोड़कर, ख़ुद-सा दिखना सीख।
संभव है सब हों ग़लत, बस तू ही हो ठीक।।

ख़ाक जिया तू ज़िंदगी, अगर न छानी ख़ाक।
काँटे बिना गुलाब की, क्या शेखी क्या धाक।।

बुझा-बुझा सीना लिए, जीना है बेकार।
लोहा केवल भार है, अगर नहीं है धार।।

सोने-चाँदी से मढ़ी, रख अपनी ठकुरात।
मेरे देवी-देवता, काग़ज-क़लम-दवात।।

ग़ज़ल का साज़ बजे है, कभी कभी ही सही
तुम्हारी दाद मिले है, कभी कभी ही सही

अगरचे दर्द है तारी तमाम हस्ती में
जिगर में पीर हंसे है, कभी कभी ही सही

यूं पतझरों की सदाओं के बीच हैं, फिर भी
बसंत राग छिड़े है, कभी कभी ही सही

नहीं है ऐसा कि दिल का हमें पता ही नहीं
हमें भी इश्क़ रुचे है, कभी कभी ही सही

तुम्हारा हिज्र कभी वस्ल को भुला न सका
अभी भी हूक उठे है, कभी कभी ही सही

ग़ज़ल का साज़ बजे है, कभी कभी ही सही
तुम्हारी दाद मिले है, कभी कभी ही सही

अगरचे दर्द है तारी तमाम हस्ती में
जिगर में पीर हंसे है, कभी कभी ही सही

यूं पतझरों की सदाओं के बीच हैं, फिर भी
बसंत राग छिड़े है, कभी कभी ही सही

नहीं है ऐसा कि दिल का हमें पता ही नहीं
हमें भी इश्क़ रुचे है, कभी कभी ही सही

तुम्हारा हिज्र कभी वस्ल को भुला न सका
अभी भी हूक उठे है, कभी कभी ही सही

ग़ज़ल का साज़ बजे है, कभी कभी ही सही
तुम्हारी दाद मिले है, कभी कभी ही सही

अगरचे दर्द है तारी तमाम हस्ती में
जिगर में पीर हंसे है, कभी कभी ही सही

यूं पतझरों की सदाओं के बीच हैं, फिर भी
बसंत राग छिड़े है, कभी कभी ही सही

नहीं है ऐसा कि दिल का हमें पता ही नहीं
हमें भी इश्क़ रुचे है, कभी कभी ही सही

तुम्हारा हिज्र कभी वस्ल को भुला न सका
अभी भी हूक उठे है, कभी कभी ही सही

ग़ज़ल का साज़ बजे है, कभी कभी ही सही
तुम्हारी दाद मिले है, कभी कभी ही सही

अगरचे दर्द है तारी तमाम हस्ती में
जिगर में पीर हंसे है, कभी कभी ही सही

यूं पतझरों की सदाओं के बीच हैं, फिर भी
बसंत राग छिड़े है, कभी कभी ही सही

नहीं है ऐसा कि दिल का हमें पता ही नहीं
हमें भी इश्क़ रुचे है, कभी कभी ही सही

तुम्हारा हिज्र कभी वस्ल को भुला न सका
अभी भी हूक उठे है, कभी कभी ही सही

ग़ज़ल का साज़ बजे है, कभी कभी ही सही
तुम्हारी दाद मिले है, कभी कभी ही सही

अगरचे दर्द है तारी तमाम हस्ती में
जिगर में पीर हंसे है, कभी कभी ही सही

यूं पतझरों की सदाओं के बीच हैं, फिर भी
बसंत राग छिड़े है, कभी कभी ही सही

नहीं है ऐसा कि दिल का हमें पता ही नहीं
हमें भी इश्क़ रुचे है, कभी कभी ही सही

तुम्हारा हिज्र कभी वस्ल को भुला न सका
अभी भी हूक उठे है, कभी कभी ही सही

ग़ज़ल का साज़ बजे है, कभी कभी ही सही
तुम्हारी दाद मिले है, कभी कभी ही सही

अगरचे दर्द है तारी तमाम हस्ती में
जिगर में पीर हंसे है, कभी कभी ही सही

यूं पतझरों की सदाओं के बीच हैं, फिर भी
बसंत राग छिड़े है, कभी कभी ही सही

नहीं है ऐसा कि दिल का हमें पता ही नहीं
हमें भी इश्क़ रुचे है, कभी कभी ही सही

तुम्हारा हिज्र कभी वस्ल को भुला न सका
अभी भी हूक उठे है, कभी कभी ही सही

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