शब्दांकुर प्रकाशन

लघुकथा – वर्तमान का दंश


“और हिरो ! क्या चल रहा है  लाइफ में ?” 
कईं सालों बाद मुम्बई से दिल्ली अपने छोटे भाई के घर आए रमानाथ जी ने अपने सत्रह साल के भतीजे से पूछा।
“कुछ खास नही ताऊजी , बस आई-आई-टी की तैयारी कर रहा हूँ ।”
“अरे पढ़ाई वढ़ाई तो चलती रहती है। तू तो ये बता तेरी गर्लफ्रैंडस कितनी है ?” 
उन्होंने हंसते हुए पूछा
“अरे क्या ताऊजी , आप भी न। मैं नही पड़ता इन चक्करों में ।”
“हट!! जिंदगी खराब है तेरी फिर । अबे जवानी मे ये सब नही करेगा तो बुढ़ापे मे करेगा क्या । पूछ अपने बाप से स्कूल काॅलेज मे कैसे लड़कियों की लाइन लगती थी मेरे पीछे। साले घर की इज्जत का तो ख्याल रख।” 
रमानाथ जी ज़ोर से हंसते हुए बोले।…
“मुझे है न ख्याल घर की इज्जत का ताऊजी ।”
बाहर से आती मिताली बोली।
“क्या मतलब?”..
“मतलब ये,  मेरे है न खूब सारे बाॅय फ्रैंडस । आप चिंता मत करो। मैं हूँ न खानदान की परम्परा निभाने को।”
मिताली दाँत दिखाती हुई चहकी।
रमानाथ जी की हँसी में ब्रेक लग गया और चेहरा गुस्से से तमतमाने लगा ।

डॉ सुषमा गुप्ता

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