रचनाकार : राजेश भुलक्कड़
समीक्षाकार : सत्यवीर नाहड़िया
दोहा साहित्य में सतसई परंपरा बेहद प्राचीन रही है, जो समकालीन साहित्यिक साधना में भी जारी है। भुलक्कड़ सतसई धारदार दोहों का एक नया संग्रह है। रेवाड़ी जिले के सुरहेली गांव में जन्मे, रेवाड़ी के विकासनगर में रह रहे, दिल्ली पुलिस में बतौर इंस्पेक्टर सेवारत राजेश कुमार यादव को साहित्य के क्षेत्र में राजेश भुलक्कड़ के नाम से जाना जाता है। वे पुलिस की सेवा और साहित्य-सृजन जैसे विरोधाभासी दायित्वों को निभा ही नहीं रहे हैं, अपितु पूरी ईमानदारी से जी भी रहे हैं। एक और जहाँ वे “कुछ खास नहीं जन्नत” तथा “रेजांगला” जैसे काव्य संग्रह दे चुके हैं, वहीं काव्य-मंचों पर हास्य-व्यंग्य कवि के रूप में भी उनकी विशिष्ट पहचान है। इतना ही नहीं, आजकल भी ग़ज़ल के छंद विधान पर भी गंभीरता से साधनारत हैं।
आलोच्य कृति में 713 दोहे हैं, जिनमें एक ओर जहां सामाजिक विसंगतियों तथा विद्रूपता पर तीखे कटाक्ष हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक एवं मानवीय दोगलेपन पर करारे व्यंग्य भी हैं। मौलिक चिंतन के साथ कहे गए धारदार दोहे प्रभाव छोड़ते हैं। उक्त दोनों पक्षों पर केंद्रित कुछ दोहे दृष्टव्य हैं-
जिनके ऊपर कोर्ट में, केसों की भरमार।
अब वे नेता बन गए, चला रहे सरकार ।।
मांँ से मिलने गाँव में, जाते नहीं जनाब।
मगर शहर में बैठकर,
मांँ पर लिखी किताब।।
जीते जी तो एक दिन, किया न मांँ से प्यार।
अब उसकी तस्वीर पर, टांग रखा है हार।।
संग्रह के अनेक दोहों में अलंकारिक भाषा का प्रयोग हुआ है-
आनन-फानन में नहीं, करती वो सिंगार।
आईने में देखती,
आनन सौ-सौ बार।।
राजू रज्जी रोमियो, रुस्तम या रहमान।
मेरीे खातिर आदमी, सारे एक समान।।
रचनाकार के दार्शनिक चिंतन को कुछ दोहों में देखा जा सकता है-
चाहे कोई दीन हो,
चाहे साहूकार।
सब को कंधे पर लिटा,
ले जाते बस चार।।
विषय व रस विविधता के चलते पुस्तक की भूमिका साहित्य-मर्मज्ञ नेमीचंद शांडिल्य ने इसे “एक ही मंच पर नवरस” की संज्ञा उचित ही दी है।
दोहा साहित्य के छंद विधान के प्रचलित सिद्धांतों के विपरीत में अनेक दोहे ‘ जगण’ से प्रारंभ हुए हैं। इतना ही नहीं, अनेक दोहों के चरण पाँच मात्रिक शब्दों से प्रारंभ किए गए हैं। इस पक्ष को रचनाकार की चूक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अपनी बात में “मैं ठहरा आधुनिक कुछ तो नया करना ही था!!” से संबंधित नए प्रयोग किए हैं। एक बानगी-
पूरे भारत देश में, आज मनेगी ईद।
रहीमन मियांँ ने नया, चाकू लिया खरीद।।
रचनाकार का तर्क है कि इस दोहे में उनका मन ही नहीं करता कि वह ‘रहीमन मियांँ’ की बजाय ‘जुम्मन चच्चा’ लिखे। वैसे ‘रहीमन मियांँ’ को ‘मियांँ रहीमन’ करने भर से ही संबंधित समाधान हो रहा था। खैर… उक्त कुछ पहलुओं को छोड़कर समूची सतसई कथ्य एवं शिल्प दोनों पक्षों पर खरी उतरती है।
आज जब दोहों के नाम पर सपाटबयानी के साथ न जाने क्या-क्या लिखा जा रहा है, ऐसे नैराश्य के दौर में भुलक्कड़ सतसई अपनी धारदार अभिव्यक्ति के साथ आश्वस्त करती है कि नई पीढ़ी में भी कुछ रचनाकार बेहद अच्छा लिख रहे हैं। यह कृति दोहा साहित्य को समृद्ध करते हुए कवि राजेश भुलक्कड़ को दोहाकार के रूप में स्थापित करेगी- ऐसा विश्वास है।
पुस्तक : भुलक्कड़ सतसई
रचनाकार : राजेश भुलक्कड़
प्रकाशन : शब्दांकुर प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ : 96 मूल्य :₹200
👌👌