लेखक : डॉ रमा द्विवेदी
समीक्षाकार : ममता महक‘
नारी मन का दृढ़ प्रत्युत्तर : मैं द्रौपदी नहीं हूँ
सत्युग से लेकर कलियुग तक स्त्री स्वयं को सिद्ध करने के लिए अनगिनत परीक्षाएँ देती आई है। यह कभी सीता बन अग्नि में प्रविष्ट हुई है तो कभी अहिल्या बन प्रस्तर में परिवर्तित हुई है। कभी सावित्री बन कठोर तप किया है तो कभी द्रौपदी बन दाँव पर भी लगी है। स्त्री को उसका सम्मान कदापि सहज में नहीं मिला। जो समाज नारी को पूजने का अधिकारी मानता है वही समाज उसे धरती में समाने के लिए विवश करता है। उसे सती न होने पर कुलक्षिणी की उपाधि देता है। कब तक ये समाज स्त्री को सती, सावित्री और सीता बनाता रहेगा। आखिर किसी स्त्री को तो कहने का साहस करना ही होगा कि हम केवल वही नहीं है जो छवि आपने बनाई है बल्कि हम भी मनुष्य हैं। हम भी कुछ करना चाहते हैं। हर पुरुष राम नहीं है तो हर स्त्री भी सीता नहीं है। आज कौन युधिष्ठिर है, कौन अर्जुन है, कौन भीम है, हाँ दुर्योधन सरीखी वृत्तियां कई पुरुषों में हैं, तो हो किन्तु अब एक भी स्त्री द्रौपदी नहीं है। अब नारी अशिक्षित, अबला और अज्ञानी नहीं है। वह प्रत्येक तथ्य और घटना को समझती है, वह साहसी और प्रगतिवादी है। वह दृढ़ निश्चयी है। वह इतनी सामर्थ्यवान है कि अपने अस्तित्व को बचाए भी रखती है और उसका स्थान भी बनाए रखती है। डॉ रमा द्विवेदी जी जिन्होंने कई विधाओं में रचनाकर्म किया है उनका नव लघुकथा संग्रह “मैं द्रौपदी नहीं हूँ” नारी मन के दृढ़ संकल्पित प्रत्युत्तरों का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। पूरी एक सौ ग्यारह लघुकथाएँ रचना, रमा जी जैसी रचना प्रेमी और निरन्तर लेखन कर रहीं
साहित्यकार के ही बस का कार्य है। विविध संदर्भों और विविध आयामों पर रची ये विविध वर्णी लघु कथाएँ पढ़ते हुए मैं कभी चौंकी तो कभी प्रसन्न हुई कभी रोई तो कभी उदास हुई। एक नारी मन को दूसरी नारी मन ने सहज में ही अपनी घनिष्ठ सखी स्वीकार कर लिया। उनकी लघुकथाएँ पढ़ स्वयं को उनका पात्र सा मानने लगी। एक नारी, एक माँ, एक पत्नी, एक बहु, एक बेटी, एक बहन, एक कामकाजी महिला, एक साहित्यकार और इन सभी के साथ समय-समय पर रमा जी ने जीवन के कई रूपों को प्रतिक्षण जिया होगा। हर क्षण को बारीकी से महसूस किया होगा अन्यथा इतनी कहानियाँ लिखना किसके बस की बात है। अनुभव और प्रतिभा दोनों का अनूठा समावेश लिए रमा जी की कहानियाँ वास्तविक परिवेश और घटनाओं को उत्कृष्ट कथानक में बुनती हैं। यूं तो लघुकथा में पात्रों के चित्रण की संभावना नहीं होती किन्तु रमा जी ने कथानक की रचना के साथ ही पात्रों का चित्रण प्रस्तुत किया है।
शीर्षक कथा “मैं द्रौपदी नही हूँ” में प्रज्ञा की जागरूकता, शिक्षा और संस्कारों ने उसके चरित्र का स्वयं चित्रण कर दिया। स्त्री यूं भी किसी पहचान की मोहताज नहीं उसका कर्म, व्यवहार और स्वाभिमान उसकी पहचान की कसौटी हैं। स्त्री विमर्श के इर्द-गिर्द घूमती कहानियाँ ‘खरीदी हुई औरत’, ‘दहशत’, ‘नियति का खेल’, ‘दरकते रिश्ते की पीड़ा’, ‘हल में जोतना है क्या’ बड़ी ही प्रभावी हैं। ये कहीं स्त्री मन की पीड़ा को दर्शाती हैं तो कहीं स्त्री की विवशता, कहीं दुर्बलता और कहीं समाज द्वारा लादी गई पराधीनता।
एक साहित्यकार होने के नाते रमा जी ने साहित्य जगत की वास्तविकताओं को देखा है, दुविधाओं को झेला है और आडंबर को जाना है। ऐसी ही सच्चाइयों पर रची लघुकथाएँ जहाँ मनोरंजन करती हैं तो सोचने पर भी मजबूर करती हैं कि जब साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता रहा है तो फिर ऐसे साहित्यकार इस दर्पण में क्यों दाग लगा रहे हैं, अपने सस्ते साहित्य और खरीदे हुए सम्मान और पुरस्कारों से। एक रचना की शुरुआत से लेकर प्रकाशन तक की प्रक्रिया में आने वाले अवरुद्धों पर भी रमा जी ने कथाएँ गढ़ी हैं।
मेरी पुस्तक की समीक्षा साझा करने हेतु हार्दिक आभार!