शब्दांकुर प्रकाशन

lakshmi tiwari

Lakshmi Tiwari PRO

जन्म स्थानउत्तराखण्ड, भारत

वर्तमान निवास – पर्थ, ऑस्ट्रेलिया

प्रकाशित कृति – पड़ाव (उपन्यास), कबूतरी और वन-बेताल

अभिरुचिदेशाटन, बाग़वानी, संगीत व पाक कला 

सम्प्रतिस्वतंत्र लेखन

परिचय

लक्ष्मी जी का जन्म व शिक्षा उत्तराखंड के कोटद्वार क्षेत्र में सम्पन्न हुई है। 1980 के दशक में  विवाहोपरांत वह अपने पति के साथ ऑस्ट्रेलिया में आप्रवासित हो गयीं। भारत की धरती से दूर रहकर भी वह हिन्दी समाज व साहित्य से लगातार जुड़ी रही हैं। पढ़ने के अतिरिक्त उन्हें हिन्दी मे लेखन की भी रुचि रही है। 2017 मे वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उपन्यास “पड़ाव” के अतिरिक्त उनकी कई कहानियाँ और कविताएँ भी विभिन्न किताबों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैंl भारत की विविध संस्कृति और परम्पराएँ उनके लेखन के मनपसंद विषय हैं।

प्रकाशित पुस्तकें

ज़िन्दगी मुस्कुराएगी

वीडियो गैलरी

तस्वीरें

लेखन

ये कथा है,  सत्य कथा,  उन जंगलों की जहां की धरती पर जीवन के असंख्य प्रकार हैं। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े। रुई की गुदगुदी लिए चौड़ी पत्तियों वाले पेड़ हैं,  जिनका बिछौना बना लें तो कड़ी धरती भी आराम का बिस्तर बन जाए। सूप की तरह चौड़ी पत्तियों वाले पेड़ हैं,  जो सूरज की रोशनी को भी ढाँपने में समर्थ हैं। शाखाएं इतनी घनी हैं कि छोटी-मोटी बारिश में यदि आप उनके नीचे बैठे हैं तो आपको छाते की ज़रूरत नहीं,  क्योंकि यहाँ प्रकृति ने अपने छाते ख़ुद बनाये हैं, बड़े-बड़े लम्बे चौड़ी पत्तियों के छाते। दूसरी ओर ऐसे भी पेड़-पौधे हैं जिनकी पत्तियां सुई से भी महीन और धारदार तलवार जैसी पैनी हैं,  जो त्वचा व मज्जा का भेदन करते हुई सहजता से हड्डियों तक पहुँचने में सक्षम हैं। यहाँ पेड़ पौधों का जो भी प्रकार है,  सघनता सब में है। कई स्थान तो ऐसे है जहां आप न धूप में तपेंगे और न ही बारिश में गीले होंगे। विविधता को खुद में समेटे ये जंगल अनोखे हैं।

कुछ विरल वृक्ष हैं,  जो आपको शहर या गाँव से सटे जंगल की सरहद पर शायद ही मिलेंगे। इनके दर्शन के लिए आपको दूर जाना होगा,  वहाँ,  जहां मानव के कदमों के निशान सिर्फ गिने चुने हों या बिल्कुल भी न हों तो और भी उत्तम है। वैसे इन जगहों पर जाना बेहद खतरे का काम है,  क्योंकि ज्यों-ज्यों इन जंगलों की सघनता बढ़ती जाती है उजाला कम और अंधेरे के साथ रहस्यमय वातावरण अधिक गहराने लगता है। इसीलिए तो उत्तराखंड के इन जंगलों में अंधेरा और रहस्य एक साथ घुल मिल कर रहते हैं। ऐसे अद्भुद स्थानों में आम तौर पर इंसान का आना-जाना नहीं,  क्योंकि यहाँ  कदम-कदम पर एक नया खतरा खड़ा हो सकता है,  ऐसा खतरा जो आदमी के लिए अजनबी है और अप्रत्याशित भी।

मगर फिर भी कुछ लोग जरूर हैं जिन पर इन जंगलों में न घुसने वाली बात लागू नहीं होती,  क्योंकि जंगल के विषय में उनका वृहद ज्ञान,  न सिर्फ उन्हें जंगल को समझने में सहायक होता है बल्कि आकस्मिक खतरे से भली-भांति निपटने की विधियाँ भी सिखाता है। उन विरले लोगों में से एक हैं हमारे भोलू मामा। जंगलों की गोद में पले-बढ़े भोलू मामा से अधिक इन अगम्य वनों को बहुत ही कम लोग जानते होंगे। मामा के जीवन में जंगल से जुड़ी कथाओं की यूं तो कमी नहीं,  मगर यह कथा विशेष है क्योंकि उस दिन भोलू मामा को पुनर्जन्म मिला था,  इसलिए।

जंगलों के पास से होते हुए इक पगडंडी जो दूर पहाड़ी तक जाती है,  बस उसी पहाड़ी की चोटी पर भोलू मामा का घर है। वैसे यह कथा साठ साल से अधिक पुरानी है क्योंकि अब तो भोलू मामा बूढ़े हो चले हैं,  और आज उनके पास वह शारीरिक बल नहीं,  पर जंगलों से संबंधित उनके ज्ञान का खजाना आज भी प्रचुरता से भरा है। एक और बात कि आज की तारीख में भोलू मामा के घर तक पक्की सड़क पहुँच गई है,  जो जंगलों के बहुत करीब से गुजरती है,  अतः आज जंगल की उस यात्रा का कुछ भाग मोटर-वाहन में किया जा सकता है। मगर जब भोलू मामा जवान थे,  या यूँ कहो कि बच्चे थे,  तब उनके गाँव से दूर-दूर तक भी किसी सड़क का अता-पता तक न था। बाज़ार जाने के लिए भोलू मामा के घर के लोग लंबी पगडंडी से नीचे उतरते,  रामगंगा को पार करते और फिर घने काले कोर्बेट के जंगल के किनारे-किनारे मीलों चलकर ख़रीददारी के लिए दुकानों तक पहुँचते। ये कहानी तब की ही है,  भोलू मामा के जवानी के दिनों की।

भोलू मामा को यदि लौह पुरुष कहें तो शायद अतिशयोक्ति न होगी क्योंकि मामू थे ही ऐसे इंसान। उन दिनों मामू के लिए बीस कोस ऊंची-नीची पहाड़ी पर चलना और फिर घर पहुँचकर खेती का काम देखना कोई बड़ी बात न होती थी। साथ साल से भी कम के थे मामू,  जब से ये सब कुछ करते देखते आये थे। किया तो उनके माता पिता और पूर्वजों ने भी यही था,  पर भोलू मामू उनसे भी कई हाथ और आगे निकले। बड़े जिज्ञासु और ज्ञान पिपासु थे वे,  घर-बाहर की दुनिया में जंगल का जो कोई भी ज्ञान किसी के भी पास था,  मामू ने खूब बटोरा। अपनी छोटी सी उम्र में ही भोलू मामा ने जंगल व उसके अंदर के संसार के विषय में ढेर सारी गूढ़ बातों का पता लगा लिया और आस-पास के विद्वानों की टोली में खुद भी एक ऊंचा स्थान पा लिया।

कोर्बेट के वे जंगल,  जहां भूले बिसरे भी कोई न जाता था,  मामू की आए दिन की यात्रा का गंतव्य होता। लोग आज भी कहते हैं कि जंगल के गर्भ में जितने दूर मामू गए हैं,  उतना शायद ही कोई दूसरा गया हो। सुना है कोई अंग्रेज गया था किसी जमाने में,  जिसके नाम से कार्बेट जंगल प्रसिद्ध हो गया। लेकिन कोर्बेट कभी गया भी होगा तो बिना टोली और बन्दूकों के नहीं। कभी अकेले गया होता मामू जैसे,  तो हो सकता है वह जंगल के दीर्घ उदर में समा गया होता और उसका आज कोई नामोनिशान भी न होता।

मामू ने कोर्बेट जंगल की अनगिनत यात्राएँ की हैं,  वह भी हाथ में बांस की एक डंडी लेकर। डंडी भी किसी को मारने पीटने के लिए नहीं,  क्योंकि भोलू मामू अहिंसावादी हैं। डंडी का प्रयोग वे इसलिए करते थे ताकि उसकी ठक-ठक की आवाज सुनकर उनके मार्ग से साँप,  कीड़ा इत्यादि जैसे जीव एक ओर को हट जायें। बरसात में मामू डंडी नहीं बल्कि एक काली छतरी लेकर चलते थे। एक बार एक तेंदुआ भोलू मामू के पास आ गया तो मामू ने उसके मुँह पर इतनी ज़ोर से छतरी खोल कर घुमायी कि तेंदुए को चक्कर आ गया और डगमगाते पैरों को खींच कर एक मिनट में ही वह रफ़ूचक्कर हो गया।

…सब लोग मामू से पूछा करते थे कि उन्हें जंगल से डर क्यों नहीं लगता? और ये भी कि वे कोर्बेट के जंगलों में जाते भी हैं तो आत्मरक्षा के लिए कोई हथियार लेकर क्यों नहीं जाते? क्योंकि कि कॉर्बेट  के जंगलों से अधिक हिंस्र जानवर भला कहाँ हो सकते हैं! इस प्रश्न पर मामू का सादा जवाब होता,  कि ‘जैसे गाँव हमारा,  वैसे ही जंगल जानवरों काl हम उनकी देखभाल करेंगे तो वे हमारी करेंगे। जहाँ तक आत्म रक्षा की बात है तो बाघ और भालू के सामने हाथ में डंडी हो या भाला दोनों बराबर हैं। यदि किसी की मौत इन जानवरों के ही नाम लिखी है तो फिर उसे कौन बचा सकता है।’ मामू की ये बात कम ही लोगों की समझ आती पर मामू भली-भांति जानते थे कि वे क्या कह रहे हैं।

जंगलों में यात्रा के वक्त मामू को पता होता कि किस ओर कौन सा जानवर होने की संभावना है। किस ओर की घास हिरनों को अधिक पसंद हैं,  किन पेड़ों पर अजगरों का वास है और ये भी कि अद्भुत व विरले पक्षियों के मनपसंद वाले कौन से पेड़ हैं? उन्हें इसकी भी अच्छे से पहचान थी कि बाघ के पदचिह्न कैसे होते हैं,  और उनकी यात्रा के समय उनका रास्ता बाघ से सुरक्षित है या नहीं। क्योंकि कोर्बेट के जंगलों की बात करें और बाघ को भूल जाएँ,  ये तो निसन्देह ही एक बड़ी भूल होगी। बाघ के अलावा,  जंगली सूवर,  भेड़िया,  भालू सब के बारे में सारी जानकारी रहती मामू को। कई बार यात्रा के समय हाथियों का दल बग़ल से गुज़र रहा होता और मामू पेड़ की ओड़ में खड़े रह पूरे दृश्य का आनंद उठाते।

मामू को अधिकांश जंगली जानवरों से किसी प्रकार का भय न होता।  उन्हें डर था तो सिर्फ़ जंगल के   अकेले हाथी से। उनके पिता व दादा ने उन्हें बताया था कि मनुष्य की तरह हाथी को भी परिवार और रिश्तों में बंधे रहना पसंद है। मौसी,  चाची और बुवाओं के बीच में रह कर ही वे अपने नन्हों की सुरक्षा कर पाते हैं,  अन्यथा बाघ और शेरों के मध्य उनके बच्चों का जीवन संकट में हो सकता है। मामा को हाथियों के परिवार में रहने के कथन पर कभी संदेह न होता,  क्योंकि आए दिन उनको हाथियों का झुंड ही दिखता,  कोई अकेला हाथी नहीं। मगर उन्हें बड़े बूढ़ों की यह बात भी सदा याद रहती कि यदि कोई हाथी अपने दल से अलग हो जाए तो यह मान लेना चाहिए कि वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठा है। और ये भी कि जंगल में एक अकेला हाथी यदि आपके पीछे पड़ जाए तो उससे अधिक ख़तरनाक कुछ भी नहीं।

मामू ने उस दिन से पहले यह बात सिर्फ़ सुनी थी और हमेशा भगवान से प्रार्थना की थी कि उनका सामना अकेले हाथी से कभी न हो। मगर ऐसा कैसे सम्भव था!  मामू की जंगल चीर कर अंदर तक जाने की इच्छा सदैव ही अतृप्त जो रहती थी। आये दिन कभी सैर तो कभी कुछ जड़ी बूटियों के लिए या फिर कभी किसी विशेष घास के लिए भी मामू घने जंगल में घुस ही जाते।

एक दिन की बात है जब मामू जंगल से घर की ओर लौट रहे थे,  चुपचाप,  सजग पर शांत तन मन से। तभी उनका माथा ठनका,  उन्हें लगा कि उस सुनसान रास्ते पर वे अकेले नहीं थे। उन्होंने इधर-उधर एक सर-सरी नजर मारी तो घने लंबे पेड़ों के सिवा इस वक्त वहाँ उन्हें और कोई नजर न आया। मामू दो कदम ही और  आगे बढ़े थे कि फिर से उनकी सजग इंद्रियाँ उन्हें किसी और की भी उपस्थिति का पुनः भान कराने लगी थीं। ‘कोई तो था वहाँ आस-पास,  ’ सोचते हुए मामू के कदम दुबारा रुक गए। मामू जंगल में मौन,  पर सतर्क रहने का नियम सदा निभाते,  इसलिए पत्ते के गिरने की आहट तक मामू के कानों से बच न पाती। यद्यपि उस समय मामू के चारों ओर सिर्फ खामोशी ही थी,  फिर भी कुछ तो था वहां जो उन्हें चुपचाप ताड़ रहा था और जिसे जंगल से अधिक रुचि मामू में थी।

 देखा हुआ खतरा अज्ञात खतरे से अधिक अच्छा है,  मामू मानते थे। कम से कम परिचित खतरे को देख-भांप कर अपने बचाव के लिए यथासंभव प्रयास तो किया जा सकता है,  ऐसा मामू सोचा करते थे। अतः पेड़ की ओड़ लेकर मामू एक जगह खड़े हो गए और उस अदृश्य मित्र या शत्रु को ढूंढने लगे। उनके आगे-पीछे व दाहिनी ओर जंगल में कुछ अधिक दृष्टि बाधक न था,  उन्हें अनुमान हो गया था कि उन दिशाओं में कोई नहीं छुपा था। हाँ उनके बायीं ओर पेड़ों के पीछे ऊंची,  घनी,  घास व झाड़ियों का एक झुरमुट था,  जिसे मामू ने पहली बात तो सिर्फ सरसरी नजर से देखा था,  क्योंकि किसी की उपस्थिति का अहसास उन्हें वहाँ न लगा था। मगर इस बार ध्यान से देखने पर उन्हें लगा कि यात्रा में किसी और के साथ होने का उनका भ्रम मात्र भ्रम न था। उन्हें विश्वास हो चला था कि उस वक्त वहाँ निश्चय ही वे अकेले न थे। जो भी कुछ था वहाँ,  वह झाड़ियों के पीछे ही छुपा था,  अतः पैनी नजर डाल वे ध्यान से उन झाड़ियों का निरीक्षण करने लगे। अगले ही क्षण में उनके पैरों तले जमीन खिसक गई थी।

क्रमशः …. 

…झुरमुट के ही रंगों में खुद को छिपाने वाला वह विशाल प्राणी अपनी दो पैनी आँखें छिपाने में असमर्थ था। मामू ने देख लिया था कि वे आँखें किसी और की नहीं वरन एक हाथी की थीं। हाथी बिना हिले-डुले,  पत्थरवत बन मामू को एकटक देखे जा रहा था। शायद उन आँखों के आकर्षण के कारण ही मामू की नजर घने झाड़ को पार कर उस हाथी तक पहुँच पायी थीं। मामू ने इधर उधर देखा व कुछ देर प्रतीक्षा की,  इस उम्मीद में कि आस-पास दूसरे हाथी भी हों और ऐसी स्थिति में उन्हें डरने की कोई जरूरत न थी। लेकिन वहाँ सिर्फ मामू थे और उनके पास ही खड़ा था एकड़ हाथी। जाने उस हाथी की उपस्थिति थी या एकड़ हाथी के विषय में मामू का पूर्वाग्रह,  उसे देखते ही कुछ देर के लिए उनका सारा विवेक काफूर हो गया था। मामू का खून बर्फ़ की तरह जमने लगा था। वे जान गए थे कि आज वे सचमुच किसी बड़े ख़तरे में पड़ गए थे। वे कनखियों से हाथी को देख रहे थे व आत्म रक्षा के उपायों पर विचार भी कर रहे थे। वैसे मामू का कहना है कि उस वक्त दिमाग पर  ऐसा डर हावी था कि ठीक से विचार करने की क्षमता भी मामू ने खो दी थी। फिर भी साहस व संयम को बनाए रखने के लिए मामू खुद को कुछ दलीलों से सांत्वना देने का प्रयास करते हुए सोच रहे थे कि हो सकता है यह हाथी भोला-भाला हो और मामू में उसे कोई रुचि न हो। लेकिन मामू का ये भ्रम और खुद को दी गई दलीलें बहुत देर न टिक पायीं,  क्योंकि मामू से आंखे चार होते ही हाथी के तेवर बदल गये और वह धड़ा-धड़ अपने एक पैर को ज़मीन पर पटकने लगा। जमीन पर उसके पैर की थाप होते ही मामू के शरीर में कंपन हो जाता था। भारी-भरकम पैरों को इस प्रकार पटकने का तात्पर्य था कि हाथी गुस्से में था,  और कुछ गंभीर करतूतों  की योजना बना रहा था| मामू के लिए ये जरा भी ख़ुशख़बरी नहीं थी,  बल्कि ये तो बहुत बुरी खबर थी,  हाथी इस प्रकार का संकेत कर आक्रमण करने की सूचना दे रहा था,  इस पर मामू को जरा भी शक न था। जड़वत बने मामू कुछ देर उस एकड़ हाथी को चुपचाप खड़े देखते रहे। हाथी अभी तक आगे न बढ़ा था और मामू भी डर से एक भी कदम न उठा पाए थे। हाथी शायद मामू को भागने का अवसर दे रहा था,  जंगल में रह कर शेर व बाघ की तरह ही भागते हुए शिकार को पकड़ने के आनंद से वह भी भला क्यों वंचित रहता। देखा-देखी का खेल अधिक देर न चला। कुछ और देर हुई,  वस्तुस्थिति से अवगत होकर मामू का साहसी व्यक्तित्व भी थोड़ा जागा और उनकी सुन्न हुई संज्ञाएँ भी वापस लौट आयीं। बस,  सामने खड़ी मौत के साक्षात दूत से आत्मरक्षा के लिए मामू ने जंगल में बेतहाशा दौड़ लगा दी।

मामू के हिलते ही हाथी भी अपने से भी ऊँची झाड़ से चिंघाड़ता हुआ निकला। और भोलू मामू के पीछे-पीछे दौड़ने लगा। मामू के पैरों पर पंख उग आए थे उस दिन,  वे मानो हवा की रफ़्तार से उड़े जा रहे थे। मामू को न पेड़ दिखते थे और न घास ही,  वे कूदते और ऊंची छलांग लगाए भागे जा रहे थे।

हाथी के लिए अलबत्ता उनकी दौड़ में न अधिक दम था और न ही उत्साह। वह उनके बिलकुल पीछे-पीछे चला आ रहा था,  एकदम क़रीब,  वह भी कोई तेज़ी से नहीं,  मानो मामू से कह रहा हो कि ‘आखिरी मौका दे रहा हूँ तुझे,  पूरी कोशिश कर ले।’ कुछ देर तक हाथी मामू के पीछे दौड़-पकड़ के खेल के मजे लेते रहा,  पर यह खेल बहुत देर नहीं चला। जल्द ही आदमी के साथ अपनी बेहद बेमेल दौड़ से वह ऊब गया और उसके  अंदर का गजत्व जाग उठा| उसने अपनी चाल थोड़ी सी और तेज की और कुछ ही क्षणों में वह मामू के बिल्कुल पास चला आया।

मामू जान गए थे कि हाथी उनके बिल्कुल पीछे था और उनके बीच मात्र सूँड़ भर की दूरी बची थी। मामू को कोई संदेह न था कि कुछ ही पलों में हाथी मामू के बदन को एक बड़ी सी गुल्ली बनाकर वहीं कहीं उछाल देगा,  किसी झाड़ी में या फिर किसी पेड़ की चोटी पर,  जहां आज के बाद वे तो नहीं पर उनका भूत जरूर रहेगा । ऐसा भी संभव था कि हाथी उन्हें बीच से चीर कर जरासंध की तरह दो दिशाओं में फैंक दे,  क्योंकि मामू ने अपने बड़ों के मुंह से हाथी द्वारा की गई ऐसी घिनौनी हरकतों की कई कथाएं सुनी थीं। हाथी का जो जी चाहे वह करेगा और यह जंगल जो मामू के जीवन का अभिन्न अंग था,  शायद मरने के बाद भी वे सदा के लिए वहीं समा जाएंगे,  मामू सोच रहे थे। आज से पहले मामू की दर्जनों वन यात्रा में जंगल ने उन्हें मौत के मुंह से कई बार बचाया था,  लेकिन आज जब मामू प्राण बचाने के लिए दौड़ रहे थे तो शायद जंगल रहा था,  उसे मामू की खबर ही न थी,  मामू सोच रहे थे। 

मामू को इतने पास देख हाथी को अपनी विजय का पूर्वाभास होने लगा था। भाग-दौड़ का खेल ख़त्म करने की चाह में वह अपनी सूँड़ मामू तक फेंकने ही वाला था कि मामू को अचानक ये भान हुआ के वे एक ऊँचे टीले पर खड़े थे और उनके आगे एक गहरा गड्ढा पड़ा था। मामू जानते थे कि बलशाली बाघ और शेर भी कितनी ही बार निरीह हिरणों से मात खा जाते हैं,  तो भला मामू इतनी आसानी से आत्म समर्पण कैसे कर देते। यद्यपि मामू के आगे कोई मामूली गड्ढा न था बल्कि एक खायी थी वह,  सीधे कटी हुई एक गहरी खायी,  लेकिन कुछ तो सहारा था,  जैसे डूबते को तिनका भी सहारा दिखाता है,  वैसे ही उस दिन मामू को अपने सामने की खाई नजर आई थी।

क्रमशः …. 

…मामू ये कहते हैं कि उस दिन जंगल के देवता ने ही उन्हें खायी वाली यह राह चुनने की मति दी थी,  नहीं तो उस दिन उनके परलोक सिधारने में कोई संदेह न था। खाई बहुत गहरी थी और इसमें गिर जाने पर मामू को जान गँवाने की भारी संभावना थी,  मगर हाथी की चपेट में आकर वह संभावना एक हक़ीक़त थी,  ये मामू जानते थे। इसलिए उन्होंने तुरंत निर्णय लिया। सूँड़ मामू को पकड़े उससे पहले मिट्टी में फिसलते हुए मामू खाई में जा लुढ़के। चिकनी मिट्टी वाली चट्टान पर मामू फिसलते चले गए बड़ी देर तक। काफ़ी गहरायी तक फिसलते हुए मामू जब रुके तो सामने रामगंगा थी। मामू को मामूली खरोंचों के सिवा अधिक चोट न आई थी,  इसलिए खायी में उतर कर थोड़ी देर के लिए मामू की साँस में साँस  लौट आयी थी। मामू ने सोचा कि इतनी ऊँची चट्टान से हाथी उनके लिए नीचे उतरने का कष्ट क्यों करेगा और निश्चय ही उनके पीछे आने का ख़याल छोड़ वापस लौट जायेगा। ये सोचकर उन्होंने वापस टीले पर नज़र मारी तो उनके हाथ पैर एक बार फिर से ढीले पड़ने लगे। हाथी अपने आगे के दो पैरों को मोड़ घुटने के बल उस विशाल टीले से नीचे उतर रहा था। अवश्य ही आसानी से हाथ लगी जीत को हार की संभावना में देख वह बौखला गया था। 

हाथी का ऐसा हठ देख मामू पुनः भयभीत हो गए। उन्होंने नदी के सहारे चलकर घर पहुँचने का विचार त्याग दिया,  क्योंकि यह रास्ता उनसे अधिक हाथी के लिए ज्यादा आसान था।

मामू जानते थे कि संसार में किसी तेज जंगली जानवर के अलावा ऐसा कोई मनुष्य न होगा जो दो पैरों से चल कर हाथी को दौड़ में हरा सके। इसलिए हाथी से बचने का उन्हें कोई और उपाय सोचना था| वे सीधी राह में न चलकर रामगंगा में घुस गए। शायद हाथी को नदी पार करने में रुचि न हो,  मामू ने सोचा था। लेकिन इस बार तो मामू के साहस के छक्के पूरे ही छूट गए जब उन्होंने बीच नदी में खड़े हो अपनी गर्दन मोड़ी व देखा कि अब हाथी भी मामू के पीछे-पीछे रामगंगा को पार कर रहा था।

हाथी आज उन्हें जल्दी से छोड़ने वाला नहीं,  मामू जान गए थे। हाथी और मामू के बीच का फासला भी बहुत कम हो चुका था। ऊपर से मामू बहुत थक भी गए थे और हाथी अभी बिलकुल तरो-ताज़ा प्रतीत होता था,  इसलिए भागकर तो उससे बचना अब कदापि सम्भव न था। अतः उस एकड़ हाथी से नज़र बचाकर मामू पास में ही खड़े साल के जंगल में एक पुराने वृक्ष पर चढ़ गए और पेड़ की घनी पत्तियों में जाकर छुप गए। कुछ ही देर में हाथी भी उसी जगह आ पहुँचा। 

हाथी ने जान लिया था कि भोलू मामा रण-भूमि से पलायन कर गए हैं और जान बचाने के लिए कहीं आस पास ही छुपे हैं। हाथी के अंदर समझदारी होती तो हो सकता है वह धर्म युद्ध के नियमों पर थोड़ा मनन करता और निहत्थे,  डरे हुई शत्रु को मैदान छोड़ कर जाने की अनुमति दे देता। मगर वह था एकड़ हाथी,  जो मानसिक संतुलन खोने की वजह से ही अपने झुंड से अलग हुआ था,  वह भला मामू को इतनी आसानी से कैसे छोड़ सकता था,  उसके दिमाग में तो दुश्मन को मटियामेट करने का भूत जो सवार था। 

हाथी ने ताड़ लिया था कि इतनी जल्दी वह दो पैर वाला प्राणी उससे अधिक दूर भागने में असमर्थ था,  इसका मतलब था कि मामू आस-पास के किसी पेड़ पर छुप कर बैठ गए थे। तभी तो उसने पास के दो तीन पेड़ों को हिला-हिला कर उखाड़ डाला था। उसने मामू वाले पेड़ को भी कई बार अपनी सूँड़ तो कभी अपनी पीठ से हिलाने की कोशिश की| अच्छा हुआ कि साल का सदियों पुराना वह पेड़ उस एकड़ हाथी के वश में न आया,  अन्यथा भोलू मामा की कथा यहीं ख़त्म हो जाती।

मामू कहते हैं कि वे पूरी रात साल के उस विशाल वृक्ष पर छुपे रहे और हाथी वहीं आस-पास मंडराता रहा। गुस्से और निराशा में अपने पैर से उसने पास की ढेर सारी जमीन भी खोद डाली थी,  शायद वह अपनी असफलता पर क्रोध व्यक्त कर रहा था।

 सूर्योदय में जब जंगल के पक्षियों ने अपने-अपने पंख फड़फड़ा कर अपने संगी साथियों को जाग उठने का आह्वान किया तो हाथी को न जाने क्या सूझी,  उसने भी एक जोरदार चिंघाड़ मारी और देखते ही देखते वह आँखों से ओझल हो गया,  उस घोर जंगल में जहां अंधेरा और रहस्य घुले मिले रहते हैं। 

कुछ मामूली चोटों को लेकर मामू घर लौटे,  बिना लाठी के,  जो भाग दौड़ में कहाँ गुम हुई उन्हें याद नहीं। हाथी से बचने में भले ही मामू का अदम्य साहस व उनकी तेज बुद्धि काम आयी थी,  मगर मामू ने इस नये जीवन के लिए अपने से अधिक जंगल की दयादृष्टि को उत्तरदायी माना। ‘आखिर जंगल ने ही तो उनके लिए  खायी के रूप सहायता भेजी थी,  अन्यथा इतने बड़े जंगल में दिशाहीन हो दौड़ते हुई वे कहीं और भी पहुँच सकते थे,  जहां हाथी उन्हें आसानी से पकड़ लेता, ’ ऐसा मामू कहते हैं। उस एकड़ हाथी से साक्षात्कार के बाद भी भोलू मामा ने जंगलों में पहले की ही तरह बराबर आना -जाना रखा,  हाँ अकेले हाथी से दुबारा मिलने की कामना भोला मामू ने फिर कभी नहीं की और इस घटना के बाद जंगल ने भी उनकी इस इच्छा का मान किया।

 (समाप्त) 

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