संक्षिप्त परिचय
अजय अज्ञात जी का मूल नाम अजय कुमार शर्मा है। उनका जन्म 24 मार्च, 1961 को मुनीरका गाँव, दिल्ली में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनकी माता का नाम शकुंतला शर्मा तथा पिता का नाम ओम प्रकाश शर्मा है। उन्होंने 1981 में मेकैनिकल इंजीनियरिंग की और 35 वर्षों की सेवा के पश्चात, एन टी पी सी से प्रबंधक के पद से सेवा निवृत्त हुए। उनकी रुचि मुख्यतः ग़ज़ल और कविता हैं। उन्हें संगीत सुनने और भ्रमण का भी शौक़ है। इस ब्लॉग में आप उनकी कुछ प्रतिनिधि ग़ज़लों का आनंद ले सकते हैं-
लेखन
अभी उम्मीद ज़िंदा है,अभी इमकान बाकी है
बुलंदी पर पहुँचने का, अभी अरमान बाकी है…
हुआ है दूर कोसों आदमी संवेदनाओं से
बदलते दौर में बस नाम का इंसान बाकी है…
अभी कुछ लोग हैं ऐसे ,उसूलों पर जो चलते हैं
अभी कुछ लोग हैं सच्चे,अभी ईमान बाकी है…
कहाँ ले जा रहे हो तुम उठा कर चार कांधों पर
अभी तो दिल धड़कता है,अभी कुछ जान बाकी है…
कई किरदार हैं इस में बहुत रोमांच है इस में
कहानी हो गयी पूरी मगर उनवान बाक़ी है…
ख़ुद को तू आईने में नज़रिया बदल के देख
जो हो सके तो जिस्म से बाहर निकल के देख
ख़तरों से खेलने का अगर शौक़ है तुझे
आँखों पे पट्टी बांध के रस्सी पे चल के देख
दुनिया तुझे बिठाएगी पलकों पे एक दिन
जो भी बुरी है तुझ में वो आदत बदल के देख
मिट कर भी छोड़ जाएगी ये अपने रंगो-बू
पत्ती हिना की अपनी हथेली पे मल के देख
सब के कहाँ नसीब में होती बुलंदियाँ
ऐ झोपड़ी तू ख़्वाब न ऊंचे महल के देख
मंचों की शाइरी से जो उकता गया है दिल
बज़्मे सुख़न में आ के तू जलवे ग़ज़ल के देख
हर इक क़दम पे पाएगा शोला-ए-ग़म यहाँ
‘अज्ञात’ राहे-इश्क़ पे चलना संभल के देख
वैसे तो ये ग़लत है मगर मानने लगे
अब ऐब को ही लोग हुनर मानने लगे
देखा नहीं जिन्होंने भी गमलों से कुछ इतर
वे बोनसाई को ही शजर मानने लगे
सच्चाई मुंह छुपाती नज़र आयेगी मियां
झूठे को आप सच्चा अगर मानने लगे
जितना हसीं ज़मीन से दिखता है दोस्तो
सच में नहीं है वैसा क़मर मानने लगे
बीमारियां जो हो रही हैं लाइलाज अब
आलूदगी का है ये असर मानने लगे
परिवार धीरे-धीरे बिखरने लगे तो हम
सूनी इमारतों को ही घर मानने लगे
थोड़ा सा मुख़्तलिफ़ है, अदबी सफ़र हमारा
आसां नहीं है रस्ता, ये पुरख़तर हमारा
सींचा है अपने खूँ से, शेरो अदब का गुलशन
शामिल है शायरी में ख़ूने जिगर हमारा
रहते हैं मुस्कुराते, ख़ारों में गुल की मानिंद
भट्ठी में ग़म की तप कर, निखरा हुनर हमारा
अंदाज़ कुछ अलग है, तहरीर भी जुदा है
हर शेर है मुकम्मल, और बाअसर हमारा
इस दौर में हमारे, शायर जो नुक़्ताचीं हैं
सबकी ज़ुबान पर है, ज़िक्रे हुनर हमारा
फ़ित्रत है शायराना, ‘अज्ञात’ है तख़ल्लुस
केवल यही तअर्रुफ़, है मुख़्तसर हमारा
सारे बंधन ख़ुदगर्ज़ी के होते हैं
सच्चे केवल दिल के रिश्ते होते हैं
कहते हैं “अपने तो अपने होते हैं”
पर अपनों से ज़्यादा ख़तरे होते हैं
कूजागर होते हैं घर के बड़े सभी
बच्चे गीली मिट्टी जैसे होते हैं
दानिशवर भी देखें हैं धोके खाते
यारो! चीटर बड़े सयाने होते हैं
बच कर रहना ऐसे लोगों से यारो
तन उजले, मन काले, जिनके होते हैं
इतना भोलापन भी ठीक नहीं गुड्डू
छः को नौ भी पढ़ने वाले होते हैं
हम अपनी प्यास का यारो कभी सौदा नहीं करते
समुंदर से कभी कतरा भी हम माँगा नहीं करते
मुसलसल चलते हैं सर पर थकन की पोटली रख कर
मिलेगी या नहीं मंज़िल, कभी सोचा नहीं करते
कभी तशहीर अपनी ज़ात की करते नहीं हैं हम
ख़ुद अपने आप को अव्वल कभी रक्खा नहीं करते
तड़पना रात दिन का बस, मुक़द्दर बन के रह जाए
किसी को इस तरह यारो कभी चाहा नहीं करते
ग़लतियों पर हमारी डांटने का हक़ है उनको
ज़रा सी बात पर अपनों से यूं रूठा नहीं करते
सिर्फ़ मैं,मेरा,मुझे को छोड़ कर आगे बढ़ो
स्वार्थ के तुम रास्ते को छोड़ कर आगे बढ़ो
चाहते हो ज़िंदगी को ख़ुशनुमा करना अगर
रंज़ो ग़म के क़ाफ़िले को छोड़ कर आगे बढ़ो
कह रही हैं मंज़िलें आवाज़ दे दे कर मुझे
इस थकन के सिलसिले को छोड़ कर आगे बढ़ो
ज़िंदगी के बाद भी जीने की हो जो आरज़ू
ज़िंदगी के मरहले को छोड़ कर आगे बढ़ो
मंज़िले मक़सूद पाने के लिए लाज़िम है तुम
छोटे मोटे मसअले को छोड़ कर आगे बढ़ो
प्यार के इस रोग का कोई मुदावा ही नहीं
इस पुराने फ़लसफ़े को छोड़ कर आगे बढ़ो
दिलनशीं मंज़र तुम्हारी राह तकते हैं ‘अजय’
गुमरही के ज़ाविये को छोड़ कर आगे बढ़ो