शब्दांकुर प्रकाशन

Ashok Kashyap PRO

पिता का नाम – श्री टीका राम कश्यप
जन्म तिथि – 9 जुलाई 1970
जन्म स्थान – गांव-बझेडा, बुलंदशहर (उ.प्र.)
शिक्षा – बी.एस.सी. (भौतिकी), बी.एड. एम.ए.
अभिरुचि – लेखन व संगीत
अध्यक्ष – नवांकुर साहित्य सभा, दिल्ली
सम्प्रति – मौसम वैज्ञानिक

परिचय

अशोक कश्यप का जन्म 09 जुलाई 1970 को बुलंद्शहर जिले (उत्तर प्रदेश) के जहंगीराबाद कस्बे के पास एक छोटे से गाँव बझेडा में एक मजदूर परिवार में हुआ। उनकी माता का नाम श्रीमती परमेश्वरी देवी तथा पिता का नाम श्री टीकाराम कश्यप हैं। इनकी आरंभिक शिक्षा गांव में ही हुई।

जब वे 15 साल के हुए तभी से पढाई के साथ घर-परिवार की जिम्मेदारी भी उठाने लगे। इसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। अशोक कश्यप ने पारिवारिक कर्ज़, गरीबी, बेकारी, लाचारी, को पंद्रह साल की उम्र में ही देख लिया था। इसीलिए उनके ये अनुभव एक जबर्दस्त सचाई लिए हुए उनकी रचनाओं में झलक उठते हैं।

उनकी बचपन से ही पढ़ने में और संगीत में बहुत रुचि थी‌ यही कारण था कि जब भी उनके गांव या पड़ौसी गाँवों में उस समय मनोरंजन के लिये स्वांग-तमाशे, ढोला, नौटंकी आदि होते थे तो वो 8-9 वर्ष के ही अकेले बड़ी तन्मयता से उनको देखते-सुनते थे। उन्हीं दिनों उनके पिताजी एक टू इन वन (रेडियो/टेपरिकॉर्डर) ले आये तो मानो उन्हें मन की मुराद ही मिल गई हो। रात को 11-12 बजे तक भी वो रेडियो पर गाने और अन्य कार्यक्रम सुनता रहते। उस समय गांव में रहते हुए ही उनके बी.बी.सी. लन्दन, वॉइस ऑफ़ जर्मनी, वॉइस ऑफ़ अमेरिका, रेडियो मॉस्को आदि स्टेशन सुनते रहने तथा उनसे पत्र व्यव्हार भी करते रहने के कारण, पड़ौस के गाँव ‘अंधियार’ के डाकखाने में जब भी उनकी विदेशी चिट्ठियां आतीं तो स्वयं डाकिया और अन्य गांव वासी उनकी एयरमेल चिट्ठियां देखकर बड़ा आश्चर्य प्रकट करते कि इस साधारण से लडके के पत्र विदेशों से आते हैं।वर्ष 1988 में जर्मन भाषा सीखने के लिए उन्हें पुस्तकें भी आईं थीं।

1996 में उनका विवाह श्रीमती सरोज बाला कश्यप के साथ दिल्ली में ही हुआ। वे सुशिक्षित महिला हैं और दिल्ली में ही जिला न्यायालय में उच्च पद पर कार्यरत हैं। उनकी दो संताने हैं– श्री अभिनव कश्यप, जो सोफ्ट्वेयर इंजीनियर हैं तथा दीपाली कश्यप जो डाक्टर हैं।

1990 में बी.एस.सी करने के बाद अशोक कश्यप गांव बझेडा से दिल्ली आये तथा एक स्थानीय कोचिंग सेंटर में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी तथा बी.एड. और एम.ए. किया। अंत में 1994 में वो मौसम विज्ञान विभाग के मुख्यालय, लोदी रोड, नई दिल्ली में मौसम वैज्ञानिक के पद पर नियुक्त हुए।

प्रकाशित पुस्तकें

ज़िन्दगी मुस्कुराएगी

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तस्वीरें

लेखन

मधुर-मधुर मीठी सी चाशनी सी ज़िन्दगी 
मदिर-मदिर धीमी सी रोशनी सी ज़िन्दगी 
गाॅव के अंधेरे में, जुगनुओं के फेरे में
झिलमिलाती, खिलखिलाती जागती सी ज़िन्दगी 
मधुर-मधुर मीठी सी चाशनी सी ज़िन्दगी 
मदिर मदिर धीमी सी रोशनी सी ज़िन्दगी 

आ ही गई होले से धीरे से समझाने
मखमली सी धूप तेरे आँचल को चमकाने
सरसों के फूलों की पालकी सी ज़िन्दगी 
मधुर-मधुर मीठी सी चाशनी सी ज़िन्दगी 

लहराती फसलों की अरमानी आशा में
बलखाती जुल्फों की मोहक सी भाषा में
तितलियाॅ पकड़ने को भागती सी ज़िन्दगी 
मधुर-मधुर मीठी सी चाशनी सी ज़िन्दगी

घर भर की सांसों का आँखों का तारा है
अंधेरी रातों का जीवन उजियारा है
आशा के दीपक को ताकती सी ज़िन्दगी 
मधुर-मधुर मीठी सी चाशनी सी ज़िन्दगी 

रिन्दों दरिंदों से बच करके आया है
मेहनत की रेहड़ी से जीवन चमकाया है
मंदिर सी मस्जिद सी पावनी सी ज़िन्दगी 
मधुर-मधुर मीठी सी चाशनी सी जिन्दगी

मधुर-मधुर मीठी सी चाशनी सी ज़िन्दगी 
मदिर मदिर धीमी सी रोशनी सी ज़िन्दगी 
गाॅव के अंधेरे में, जुगनुओं के फेरे में 2
झिलमिलाती, खिलखिलाती जागती सी ज़िन्दगी 
मधुर-मधुर मीठी सी चाशनी सी ज़िन्दगी 
मदिर-मदिर धीमी सी रोशनी सी ज़िन्दगी 

सामने सूरज सुनामी, ज़िन्दगानी है बचानी
है समंदर दूर मीलों, आग फिर भी है बुझानी

एक अर्से से ना बरसाए मुद्दतों से मन है तरसा
सारी सारी रात जागा एक दीया सूने घर सा
सूखे बादल सी रवानी, सूने दीपक सी जवानी
है समंदर दूर मीलों, आग फिर भी है बुझानी

फूल ने हर पंखुड़ी में, अक्स ऐसे भर लिया है
शबनमी कंचन किरन ने जैसे आलिगन किया है
महकती सी ये कहानी, सारे गुलशन से छुपानी
है समंदर दूर मीलों, आग फिर भी है बुझानी

हाँ ये हौवा डराता है, काम क्या क्या कराता है
बचता फिरता बचपने से, नहीं कोई बचाता है
तीर तलवारें बना लीं अब ये इस पर है चलानी
है समंदर दूर मीलोंए आग फिर भी है बुझानी

चाँद नहाया अंधेरों में, सितारों से घर सजाया
रात की डोली उठाकर हसरतों के नगर लाया
सेज पर अरमान बिखरे, सिसकियां देतीं गवाही
है समंदर दूर मीलोंए आग फिर भी है बुझानी

सामने सूरज सुनामी, जिन्दगानी है बचानी
है समंदर दूर मीलों, आग फिर भी है बुझानी

नन्हीं सी चिड़िया का होंसला बुलन्द है
बाज़ों से पंगा लेने को रज़ामन्द है

पनघट पर पहुॅची पनिहारी पुकारी
प्यासी हूॅ मैं मुझे पानी तो ला री
खैर नहीं तेरी ओ जग के अन्नदाता
बच्चों को क्यों कर तू दाना ना लाता
मेरा हर उपवन का फूल, फल, कन्द है

फुर्र-फुर्र फूलों-फलों फुदकी फिरती
डाल-डाल डोले, डराए ना डरती
किसकी मजाल कोई रोके और टोके
खाए हैं इससे तो गिरगिट ने धोखे
बोलती आजादी में कितना आनन्द है

कहती चिड़ा से कि अब ना सहूंगी 
अनन्याय की बात सबसे कहूंगी 
घर बाल-बच्चों को तुम भी संभालो
थोड़ा चैके-चूल्हे का भी मज़ा लो
मेरे डिनर का तो बाहर प्रबंध है

घूम-घूम घर-घोंसला घेर, घेरे
संस्कारों के संग लिए सात फेरे
बाहर की दुनिया में भी आई आगे
लालच के लडडू के पीछे ना भागे
पाक-साफ नीति है नहीं अंर्तद्वद है

बोला बहेला मैं जाल बिछाता हॅू
पंगे के फंदे में इसे फॅसाता हॅू
समय चक्र से नादां बड़ा बेखबर है
भूकम्प से कहता पत्थर का घर है
प्रकृति में परिवर्तन स्थाई छन्द है

लग रहा है सुनहरी सुबह होने वाली है
चिड़ियां चहकने लगीं हैं, पूरब में लाली है

नाज़ुक कलाईयों में शक्ति अजब आई है
धरती की धूल जैसे आसमां पे छाई है
धूल ये बनेगी फूल, ऋतु वो आने वाली है
लग रहा है सुनहरी सुबह होने वाली है

नौनिहाल आँखें अब ख्वाब हकीकत करतीं
विश्वकप बगल में दबा, पाॅव चाॅद पर धरतीं
संभव है सब इनको, असंभव तो गाली है
लग रहा है सुनहरी सुबह होने वाली है

अजगर सा बैठा है घात लगा रस्ते में
जब-तब निगल जाता महगों को सस्ते में
सर्जीकल सपेरों नेे, राह नई निकाली है
लग रहा है सुनहरी सुबह होने वाली है

सोने की चिड़िया फिर आज विश्व ने देखी
खरबों तहखाने में, नहीं बघारे शेखी
सैकड़ों तहखाने है, एक नहीं खाली है
लग रहा है, सुनहरी सुबह होने वाली है

चिड़ियां चहकने लगीं हैं, पूरब में लाली है
लग रहा है, सुनहरी सुबह होने वाली है

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अशोक कुमार कश्यप

बहुत बढ़िया । बहुत सुन्दर बधाई व शुभकामनाएँ आपको।

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