संक्षिप्त परिचय
बचपन से ही आशुतोष को कविताएँ पढ़ने और लिखने में रूचि रही है। हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम के कारण ही वे आज भी कई हिंदी उपन्यासों और कहानी संग्रहों के चाटू हैं। अपने विचार, अवलोकन और धारणाओं को शब्दों के माध्यम से कागज़ पर उतारकर, उन्हें कविताओं का रूप देकर और उसे अपनी शैली बनाकर वे पाठकों के हृदय को छू लेने का परस्पर प्रयत्न करते हैं। वे कोशिश करते हैं कि उनकी लिखी कविताएँ जीवन के अनेक भावों जैसे प्रसन्नता, प्रेम, दुख, प्रेरणा, जागरूकता, विरह आदि की छवियाँ बनें और पाठक के भीतर एक संदेश छोड़ जाने के योग्य बनें। उनकी कविताएँ प्रयास करती हैं कि नवीनीकरण के इस दौर में भी लोगों में हिंदी भाषा में अपनी भावनाओं को खोज लेने का भाव सदैव बना रहे। उनकी लेखनी में विचारों की गहराई एवं शब्दों की सरलता एक साथ देखने को मिल जाती है।
इस ब्लॉग में आप आशुतोष की कुछ प्रतिनिधि रचनाओं का आनंद ले सकते हैं-
लेखन
मैं एक मचलते लेखक के,
अंतर्मन की बखानी हूँ,
मैं साहित्य की रानी हूँ,
एक भूली बिसरी कहानी हूँ।
कभी छोटी हूँ, कभी बड़ी हूँ ,
मैं जीवन का वादन हूँ,
मैं कलाकार की सोच हूँ,
मैं मनोरंजन का साधन हूँ,
मैं नींद हूँ उन बच्चों की,
जो मुझपर निर्भर होते थे,
अपनी दादी-नानी से,
मुझको सुनकर सोते थे,
मैं जीवन का अंश हूँ,
कल्पनाओं का सागर हूँ,
मैं व्याकरण के सुसज्जित हूँ,
और सभ्यताओं का आदर हूँ,
मैं तेनाली की चतुराई हूँ,
मैं पंचतंत्र का अभिप्राय हूँ,
मैं अकबर को दी गयी,
बीरबल की राय हूँ,
मैं जयशंकर की छाया हूँ,
प्रेमचंद की बूढ़ी काकी हूँ,
मैं लड़खड़ाते साहित्य को,
संभालती बैसाखी हूँ,
मैं उपन्यास सी विशाल हूँ,
मैं छोटा सा एक किस्सा हूँ,
मैं हर जीवित व्यक्ति के,
जीवन का एक हिस्सा हूँ,
अज्ञानता को नष्ट करता,
ज्ञान रूपी बाण हूँ,
मैं असत्य पर सत्य की,
जीत का प्रमाण हूँ,
मैं अधर्म का नाश हूँ,
मैं स्नेह की निशानी हूँ,
मैं साहित्य की रानी हूँ,
एक भूली बिसरी कहानी हूँ।
मैं खंडहर विवेक का,
खड़ा हूँ टूट-टूटकर
मैं खंडहर विवेक का,
खड़ा हूँ टूट-टूटकर।
मेरा चरित्र आस का,
बचा हुआ-सा अंश है,
मेरे भावों की नींव पर,
लगा दुखों का दंश है,
उम्मीद ओज की लिए,
झरोखे खोले मर्म के,
मेरे ह्रदय में रह रहा,
गहन तिमिर का वंश है,
प्रकाश ना पहुँच सका,
यहाँ गगन से छूटकर,
मैं खंडहर विवेक का,
खड़ा हूँ टूट-टूटकर।
लिपटी हैं मेरे वक्ष से,
लपट विरह की आग की,
आंधियाँ प्रपंच की,
वृष्टि द्वेश-त्याग की,
दृष्टि में इस सृष्टि के,
दिखाया मुझको न्यून गया,
दिया है मुझको विष गया,
छलावे में पराग की,
पिया है मैंने विष भी है,
यथार्थ घूंट-घूंटकर,
मैं खंडहर विवेक का,
खड़ा हूँ टूट-टूटकर।
माना चोट छल की मैंने,
खाईं हैं अनेक से,
धैर्य किंतु ना डरा,
किसी विरुद्धी वेग से,
टूटकर बिखर गया,
माना अंश-अंश मेरा,
छूटने दिया ना मैंने,
चित्त को विवेक से,
दिया है त्याग मैंने भी,
जो गये मुझसे रूठकर,
मैं खंडहर विवेक का,
खड़ा हूँ टूट-टूटकर।
ये शंका न्यून पराजय की, ये भय तुम्हारा किंचित है,
तुम करते रहो प्रयास निरंतर जीत तुम्हारी निश्चित है।
माना ये पथ आसान नहीं, काँटों से चलकर जाना है,
अब त्याग करो हर भय का जब उनपर चलने का ठाना है,
ये मन तुम्हारा कहता है हर दुख में भी मुस्कायेंगे,
इक दिन तुम्हारे आगे फिर वो पर्वत भी झुक जायेंगे,
तुम निर्बलता को त्यागकर, निर्भयता के अब वस्त्र बुनों,
साहस, धैर्य, प्रताप और बाहुबलता के शस्त्र चुनों,
भला क्यों स्वाभिमान से ये मन तुम्हारा वंछित है,
तुम करते रहो प्रयास निरंतर जीत तुम्हारी निश्चित है।
तुम निम्न नहीं तुम आशा से जलते सूरज की धूप हो,
तुम जीवन को जीवित रखने वाली शक्ति का रूप हो,
तुम उस धरती के अंश हो जिसपर ये जीवन पलता है,
तुम उस अग्नि की ज्वाला हो जिससे एक तेज निकलता है,
तुम झोंके हो उस वायु के जिससे सृष्टि की सांस चले,
तुम धारा हो उस जलधर की जो संग लेकर उल्लास चले,
तुम छवि हो उस आकाश की जिससे ये भूमि सिंचित है,
तुम करते रहो प्रयास निरंतर जीत तुम्हारी निश्चित है।
तुम ऐसे चलो कि पग-पग पर भय से छिड़ता संग्राम रहे,
पग ऐसे चलें पथ पर कि सांसो की उपमा अविराम रहे,
तुम थामो अंगुली साहस की, साहस पर तुम विश्वास रखो,
तुम अपनी घोर तपस्या का परियोजन अपने पास रखो,
जो समझे तुमको बीज शिथिल बैठा माटी में हारकर,
तुम निकलोगे एक दिन निश्चित धरती का सीना फाड़कर,
तुम श्वास लोगे जल में भी, सूरज से आँख मिलाओगे,
तुम धैर्य रखो एकाग्र रहो तुम स्वयं उभरकर आओगे,
ढल जायेगी वो रात दुख, विलाप और भय के तम की,
एक आभा लेकर आयेगी वो भोर घोर परिश्रम की,
शौर्य तुम्हारा कस्तूरी बन अम्बर पर देखो मंचित है,
तुम करते रहो प्रयास निरंतर जीत तुम्हारी निश्चित है।
कहाँ गयी थी, क्यों गयी थी,
किससे मिलने गयी थी तू,
छूटकर इस पिंजरे से,
किस बगिया में खिलने गयी थी तू,
तू बात नहीं करती किसी से,
हम सबको तुझपर नाज़ है,
पर कल फोन आया था किसी का,
किसी लड़के की आवाज़ है,
क्यों करती है तू लड़कों से बात,
तुझमें हया नाम की चीज़ नहीं?
दुपट्टा नहीं चढ़ाती तू,
तुझमें थोड़ी भी तमीज़ नहीं?
ला दिखा मुझे भी ज़रा,
ये फोन को देख मुस्काती है,
बाल बाँधकर जाया कर,
खोलकर क्यों जाती है?
अफसर क्यों नहीं बनती तू,
हमेशा घर में बिठालकर पढ़ाऊँ क्या,
पढ़ना नहीं है तो बोल दे,
शादी की बात आगे बढ़ाऊँ क्या,
अब बोल दिया तो बैठ गयी पढ़ने,
घर के काम कौन करेगा,
कुछ बनाना तो सीख ले,
ससुराल में खाने का इंतज़ाम कौन करेगा,
दिखा ज़रा क्या पढ़ रही है,
ये क्या हैं कविता-कहानियाँ,
गणित,जी.के.,रीज़निंग पढ़,
कब तक करेगी मनमानियाँ,
कितना ज़ोर से हंसती है,
अपने दाँत ज़रा अंदर रख,
ये फटी जींस को फेंक दे,
लड़कों से ज़रा अंतर रख,
कब तक बैठी रहेगी तू,
हम कब तक तुझको पालेंगे?
इक्कीस की हो गयी है,
कब तक तुझे संभालेंगे?
ससुराल अपने जायेगी,
तो क्या मुँह दिखायेगी,
दुनियादारी तो आती नहीं तुझे,
घर संभाल पायेगी?
क्या? हमने रोका है?
हमने कब रोका तुझे?
जो कहा सो करके दिया,
हमने कब टोका तुझे,
बस, अब और बहस नहीं,
लड़की है, लड़की रह,
ये गुस्सा यहाँ दिखाना मत,
और भड़की है तो भड़की रह,
चल अच्छा अब मान जा,
खुद को अब संभाल लेना,
जब मन अच्छा हो जाये,
तो बर्तन धोकर डाल देना।
न आभूषण सोने के न नगरी मुझे सजाकर दो,
ला सको तो जाओ मेरा सम्मान वापस लाकर दो।
खड़ी हूँ किस दशा में देखो आर्यों के आवास में,
आज हुआ जो हुआ नहीं इस धरती के इतिहास में,
खड़ी है एक क्षत्रिया तुम्हारे सामने बनकर दासी एक,
तिलक तुम्हारे मस्तक का बन गई चरणों की वासी एक,
क्या हुआ अब मौन हो क्यों गये कहाँ अब आचार तुम्हारे,
कुरू के वीर कहलाने वाले छिन गये सब अधिकार तुम्हारे,
देखो कैसे इन पशुओं ने आघात मुझे गंभीर दिया,
तुम्हारे ही नेत्रों के आगे चीर को मेरे चीर दिया,
कृष्ण नही तुम पाँचों मेरे अंशों को उठाकर दो,
ला सको तो जाओ मेरा सम्मान वापस लाकर दो।
विवाह के बंध में बंधने का सिर्फ अर्जुन को अधिकार दिया,
किंतु तुम्हारे वचन के कारण पाँचों को स्वीकार लिया,
स्वीकार लिया वो भी मैंने जब जग ने मुझे धिक्कारा था,
दूर-दूर तक जब लोगों ने वैश्या कहकर पुकारा था,
किंतु हो गया ज्ञान मुझे कि चरित्रहीन यहाँ कौन है,
एक नारी का चित्तहरण देख सबकी जिह्वा मौन है,
हर ले जो मेरी ही लज्जा कैसा ये परिवार मिला,
मेरे बलिदानों के बदले मुझको ये उपहार मिला,
जिस नारी ने कुरुवंश के लिए अपने चरित्र का दांव रखा,
दांव पर रखकर उसको तुमने उसके चरित्र पर पांव रखा,
सिर पर से अपने नपुंसकता का मैल हटाकर दो,
ला सको तो जाओ मेरा सम्मान वापस लाकर दो।
हस्तिनापुर का मुकुट देखो धृतराष्ट्र के माथे सज्जित है,
किंतु नयन हैं झुके हुए, मन अपनी करनी पर लज्जित है,
मंत्री पद पर बैठे विदुर को धरम का ज्ञानी कहते हैं,
ऐसे ज्ञान की मौन जिह्वा को धरम की हानि कहते हैं,
और क्या हुआ इस रक्त का लाभ जो तुम्हारे रगों में बहता है,
अपने ही आगे जो नारी का अपमान सहता है,
न जाने कैसे तुमने भीष्म इन्हें संस्कार दिये,
अधर्म के आगे झुककर जिनने धर्म के मुकुट उतार दिये,
और कैसी शिक्षा दी है तुमने द्रोण अपने शिष्यों को,
किस विद्या से धनी किया दुस्शासन जैसे मनुष्यों को,
जाओ अपने कुकर्मों का हिसाब मुझे लिखवाकर दो,
ला सको तो जाओ मेरा सम्मान वापस लाकर दो।
मैं वंशज हूँ शूर-बाहु की, अग्नि से मेरा जन्म हुआ,
उद्धार नगरी पांचाल का मेरे जन्म से ही सम्पन्न हुआ,
द्रुपद पिता हैं मेरे जिनसे मुझको मेरा नाम मिला,
ज्ञाता युध्द-कलाओं के वो, परशुराम से ज्ञान मिला,
भाई मेरा अग्नि का अंशज देह जिसका विशाल है,
कृपाण पर उसकी प्रतीक्षा करता द्रोणाचार्य का काल है,
मेरे राष्ट्र का हर वासी मुझे मान भी दें सम्मान भी दें,
मेरी रक्षा के लिए क्षणभर में अपने प्राण भी दें,
चाहें तो भर दे ये सारा लहू से आंगन कौरव का,
किंतु ऋण अब आ चुका तुम सब पर मेरे गौरव का,
लाकर मस्तक दुर्योधन का, ऋण ये सारा चुकाकर दो,
ला सको तो जाओ मेरा सम्मान वापस लाकर दो।
न जाने नारी ने ऐसा कौन-सा पाप गंभीर किया,
कि जब चाहा उसे वस्त्रों जैसे फाड़ दिया कभी चीर दिया,
कहाँ गया वो धर्म जिसका हर क्षण गुणगान करते हो,
नारी को तुम पूज्य बताकर उसी का अपमान करते हो,
नारी का ये शोषण कलयुग तक होता जायेगा,
आज तो कृष्ण आ गये कलयुग में कौन आयेगा,
कब भला इस सृष्टि में नारी को समझा जायेगा,
घर में ही बैठे पशुओं से नारी को कौन बचायेगा,
समझ नही पाया वो जिसने नारी पर आँख उठा ली है,
वही नारी एक दुर्गा है और वही नारी एक काली है,
वो प्रेम भी कर सकती है, वो प्राण भी हर सकती है,
दे सकती है जो जन्म तुम्हें, संहार भी कर सकती है,
मुझको भी निर्दयी समझकर अत्याचार अत्यंत हुआ,
बहुत हुआ अब मेरी भी संयमशक्ति का अंत हुआ,
वचन है मेरा दुर्योधन तू चरणों में मेरे चित होगा,
शकुनी, कर्ण, अश्वत्थामा, तुम सबका अंत निश्चित होगा,
निश्चित धृतराष्ट्र ह्रदय के तुम्हारे सौ टुकड़े हो जायेंगे,
जब केश मेरे दुस्शासन के मैले रक्त से नहायेंगे,
जितना मेरे अपमान का न्याय करने में विलंब होगा,
उतने ही शीघ्र यहाँ पर महाभारत आरंभ होगा,
तुम सब का कर्तव्य है अब ये युद्ध मुझे जिताकर दो,
ला सको तो जाओ मेरा सम्मान वापस लाकर दो।
महज़ एक फूल हूँ मैं,
कहने को मैं नाज़ुक हूँ,
होने को एक शूल हूँ मैं।
मैं प्रतीक हूँ प्रेम का,
मैं स्नेह का ज़रिया हूँ,
मैं ह्रदय में अनुराग की,
लहरें उठाता दरिया हूँ,
मैं मिलता हूँ मिसालों में,
इश्क के हवालों में,
आशिकों के हाथों में,
माशुकाओं के बालों में,
कभी मिल जाता हूँ,
ताज़े प्रेम के प्रमोद में,
कभी बैठा रहता हूँ सूखा,
अनछुए पन्नों की गोद में,
मैं गज़लों में नज़रबंद हूँ,
मैं कविताओं का छंद हूँ,
मैं मोहब्बत लिख रहे,
शायरों की पसंद हूँ,
मैं लाल इश्क की लालिमा हूँ,
मैं श्वेत प्रीत की श्वेतना हूँ,
मैं देश-प्रेम का नारंगिनी हूँ,
मैं गुलाब सांझ की चेतना हूँ,
प्रेम के प्रकारों के,
रंगों के अनुकूल हूँ मैं,
महज़ एक फूल हूँ मैं।
मैं प्रतीक हूँ सुंदरता का,
मैं भोर का बुलावा हूँ,
मैं रागिनी हूँ सुगंध की,
मैं प्रकृति की आभा हूँ,
मैं मिलता हूँ कलाओं में,
मृदाओं में, शिलाओं में,
वात्सल्य की मालाओं में,
कृष्ण की लीलाओं में,
समर्पण का प्रतिरूप हूँ मैं,
मैं देवताओं को प्रिय हूँ,
मैं प्रार्थना का मूल हूँ,
मैं सौन्दर्य में अद्वितीय हूँ,
मैं सुसज्जित हूँ मुकुटों पर,
मैं चरणों में अर्पित हूँ,
मैं जीवन का शुभारंभ हूँ,
मैं मृत्यु पर समर्पित हूँ,
मैं सुखत्व की प्यास हूँ,
मैं आनंद की आस हूँ,
मैं ईश्वर का संदेश हूँ,
मैं भक्तों का विश्वास हूँ,
कभी ब्रम्ह का कमल हूँ,
कभी शिव का त्रिशूल हूँ मैं,
महज़ एक फूल हूँ मैं।
मैं प्रतीक हूँ प्रतीकों का,
प्रतीकों का आधार हूँ मैं,
विश्व के अधिकतर,
चिन्हों पर सवार हूँ मैं,
मैं मिलता हूँ समितियों में,
बिछड़ी आपबीतियों में,
साम्राज्यों की ध्वजाओं में,
मचलती राजनितियों में,
मैं मिलता हूँ मीनारों में,
वीरों की तलवारों में,
नफरतों को बाँट रही,
दीवारों की दरारों में,
गुलाब सा निर्मल हूँ मैं,
कुमुदों सा अचल हूँ मैं,
गेंदे सा सजल हूँ मैं,
ज्ञान का कमल हूँ मैं,
जीवों का पिता हूँ मैं,
प्रकृति का बेटा हूँ,
मैं भीतर अपने अनंत,
ब्रम्हांड को समेटा हूँ,
मूल हूँ संसार का,
और स्वयं में निर्मूल हूँ मैं,
महज़ एक फूल हूँ मैं।
अ, अनार पर हंसती दुनिया,
ए टू जे़ड में बसती दुनिया,
अपनी ही ज़ुबाँ को,
धोखा देने से तुम चूक ना पाओ,
हिंदी के लिए दो दबाओ।
दुनिया की इस तेज़ी में,
जॉब करो अंग्रेज़ी में,
ज़ुबां पर रखकर अंग्रेज़ी को,
तलवे उनकेे चाटे जाओ,
हिंदी के लिए दो दबाओ।
जिसके बिना ना बात बने,
जो ज़रूरत नही औकात बने,
ऐसी भाषा के आगे,
चलो सब लोग अपने ‘हेड’ झुकाओ,
हिंदी के लिए दो दबाओ।
सोच पाले बेकार की,
भाषा सात समंदर पार की,
सालों करी गुलामी उनकी,
सोच को भी तो आज़ाद कराओ,
हिंदी के लिए एक दबाओ।
भाषा बहता एक दरिया है,
सबके मेल-जोल का ज़रिया है,
नीचा ना दिखाओ किसी भाषा को,
ना किसी को सर चढ़ाओ,
सबके लिए एक दबाओ।