नाम : हुकम सिंह
पिता का नाम : योगी मान सिंह तंवर ‘नाथजी बापू’
जन्म तिथि : 15 सितम्बर
जन्म स्थान : जयपुर, राजस्थान
शिक्षा : B’ Com (Hon’s Business Administration) LLB Professional
अभिरुचि : संगीत गायन और वाद्य, गायन, किताबें पढ़ना, हिंद उर्दू और राजस्थान में कविताएँ लिखना, छात्रों को मोटिवेशनल स्पीच देना, बाल अधिकारों एवं मानवाधिकारों के लिए काम करना, शतरंज खेलना, योगा और कराटे का अभ्यास करना, खाना पकाना
सम्प्रति : सेवानिवृत्त पुलिस ऑफिसर
लेखक परिचय
मेरा जन्म 06 सितंबर 1961 को एक सामान्य मध्यम श्रेणी के परिवार में हुआ जिसके पूर्वजों ने नाथ संप्रदाय में दीक्षित होकर सामंती पृष्ठभूमि को त्याग कर जन सामान्य की तरह जीवन यापन प्रारंभ किया। 1970 के दशक में दसवीं की परीक्षा के लिये सोलह साल की आयु की अर्हता पूरी करने के लिये मेरी जन्मतिथि 15 सितंबर 1959 करनी पडी अर्थात मैं अपनी उम्र से दो साल बडा हो गया।
लेखन में सच कहूं तो 1972 में मैंने तुकबन्दियां शुरू की थी जब मैं 8वीं कक्षा का विद्यार्थी था। हालांकि इसकी नींव 1970 में 5वीं कक्षा में ही पड चुकी थी। निसन्देह मैं बचपन की उस मित्र को याद कर रहा हूं जिससे मैं 1970 बाद नहीं मिला लेकिन वो मेरी सर्वकालिक प्रेरणा है। मुझे आज नहीं पता कि वो कहां है लेकिन वो हमेंशा मेरी यादों में है और रहेगी। यहां उसका नाम लिखकर कोई ग़लती नहीं करूंगा लेकिन जीवन की क़िताब के हर पन्ने पर उसका नाम है। प्रारंभ में केवल किसी को किसी बात का जवाब देने के लिये काव्यशैली में बहुत हल्की-फुल्की दो या चार पंक्तियां कह देता। अभ्यास होने पर ऐसी ही तुकबन्दियों को सहेजना शुरू किया मुझे तारीख तो नहीं लेकिन ये याद है कि कौन सी कविता किस समय और किन परिस्थितियों का परिणाम थी। मैं यहां एक बात सभी पाठकगण से निवेदन करना चाहता हूं कि मुझे मेरी रूची के अनुरूप ना तो वातावरण मिला और ना मित्रगण। मेरी कविताएं मेरे मित्रों के लिये नितान्ततः व्यर्थ और समय की बर्बादी से अधिक कुछ नहीं थी, बहुत बडे कवियों में मेरी पहुंच नहीं थी और मध्यम स्तर के कवि मेरी कविता को आमलोगों की समझ में नहीं आ सकने वाली होकर मंच पर ‘हूट‘ हो जाने वाली कहकर नकार देते थे क्योंकि मेरी कविताओं में उर्दू के क्लिस्ट शब्द, अत्यधिक अलंकारपूर्ण व सांकेतिक शैली और इजाफ़त का प्रयोग बहुत अधिक होने के कारण समझने की गति को मंथर कर देने वाले थे। मेरी मुष्किल ये कि सीधे सरल रूप में कुछ कहना मुझे पसंद ही नहीं आता था और मेरे लिखे को पढ या सुनकर कोई उसका मतलब समझाने के लिये कहता तो मुझे सन्तुष्टी होती।
एक प्रश्न मुझसे पूछा जाता रहा है कि इतनी उर्दू मैंने कहां से सीखी? निसन्देह मेरी पारिवारिक या व्यावसायिक पृष्ठभूमि में उर्दू का कोई स्थान नहीं था। उर्दू कविता से मेरा परिचय एक विलक्षण संयोग है। बहुत गौरवषाली और सामन्ती ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले परिवार से संबंधित होने पर भी मुझे ये स्वीकार करने और उल्लेख करने में गर्व है कि परिवार में वो परिस्थिती भी आयी कि मुझे 8वीं कक्षा के बाद अपनी पढाई का खर्च बहुत तरह के काम करके पूरा करना पडा। सुबह अखबार बांटने, पतंग के रंगीन काग़ज़ से फूल व माला बनाने से लेकर पेंटिंग की फ़ड, पिछवाई, बणीठणी और मुग़ल आर्ट जयपुर के सुप्रसिद्ध चित्रकार स्वर्गीय बन्नूजी के सानिध्य व निर्देशन में की। ‘मुग़ल पेंटिग्स‘ बनाने के लिये उर्दू लिखे पन्नों की खरीद के लिये पुरानी किताबों की तलाष में हटवाडा (जो सत्तर-अस्सी के दषक में जयपुर के गणगौरी बाजार में लगता था) जाता था। पुरानी किताबों के एक कबाडी की दुकान पर उन्हीं पन्नों को तलाषते मिर्ज़ा ग़ालिब का देवनागरी लिपि में एक दीवान अढाई आना यानी 15 पैसे में मिल गया जिसमें कविता में आये उर्दू शब्दों का अर्थ भी था। कह सकते हैं कि शुरूआत ग़ालिब से हुई। फिर तो मीर और ज़फ़र को भी पढ डाला। इस तरह उर्दू से परिचय हो गया। उर्दू की इजाफ़त से बनने वाले अलंकारिक भाषा से मेरी हिन्दी की उन छुटपुट तुकबन्दियों की शक़्ल बदलने लगी।
अब तक मैं उर्दू लिपि से अपरिचित था। संयोग से 1995 में पाकिस्तान स्थित पंजासाहिब की यात्रा से लौट कर आने वाले मेरे एक परिचित किसी पाकिस्तानी लेखक ज्ञानी ताज रसूल खां द्वारा लिखित एक किताब लाये जिसका शीर्षक था ‘गीता और कु़रान‘। उन्हीं दिनों मुझे गीता को कण्ठस्थ करने की धुन लगी हुई थी इसलिये इस शीर्षक ने मुझे आकर्षित करना ही था। उसी दिन जयपुर में ही मोती डूंगरी रोड पर मिस्कीन बुक डिपो से उर्दू के पांच क़ायदे लाया, वर्णमाला का अभ्यास किया, अक्षरों के सोषे जोडकर शब्द बनाने सीखे और बस… दो महीने की मेहनत में उर्दू लिखना और पढना आ गया। फिर ज्ञानी ताज रसूल खां साहब की ‘गीता और कु़रान‘ को पढा। उसमें क्या लिखा है ये तो मैं सार्वजनिक रूप से नहीं बता सकता लेकिन, उसमें जो लिखा है उसे भारत में प्रतिबन्धित करने के लिये काफ़ी था। उसे हिन्दी लिपी में रूपान्तरित किया जो आज भी मेरे पास है। मैं ईश्वर को कोटिश धन्यवाद अर्पित करता हूं कि संयोगवष उर्दू से हुई मित्रता मेरे पुलिस पेशे में उसने इस तरह भी सहायक बनायी। उर्दू के पांच क़ायदे पढ लेने का ये तात्पर्य नहीं कि मैं उर्दूदां हो गया बल्की मुझे ये स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मेरी उर्दू अब भी हिन्दलिश (इंग्लिश मिश्रित हिन्दी) भाषियों की तरह हिन्दुर्दू (उर्दू मिश्रित हिन्दी) ही है। मुझे उर्दू व्याकरण का ज्ञान तो है ही नहीं और उर्दू शब्दों की पूंजी भी ‘हल्दी की गांठ‘ वाली कहावत को ही चरितार्थ करती है।
कविता के अतिरिक्त किसी और विधा में किताब लिखने की तो मैंने कभी सोची ही नहीं थी। मैं तो अपनी उर्दू कविताओं का संग्रह प्रकाशित करवाने के प्रयास में था कि जनवरी 1992 में राजस्थान पत्रिका में नाथ संप्रदाय के लिये एक लेख ने मुझे आवेशित कर दिया और मैं संक्षेप में कहू तो उस दिन और उसके बाद मैं सोया नहीं । बीस वर्ष तक चले मेरे शोध का परिणाम वर्ष 1992 में राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर से नाथ संप्रदाय इतिहास एवं दर्शन के रूप में प्रकाशित हुआ जिसकी मैं रॉयल्टी नहीं लेता।
उन बीस वर्षों में किये गये शोध के दौरान नाथ संप्रदाय से इतर विषय भी मेरे संज्ञान में आते रहे जिन्हें में अलग से संकलित करता रहा जो आज शब्दांकुर प्रकाशन से अग्निपुष्प के रूप में आपके समक्ष है। इस मध्य उर्दू कविताओं का एक संग्रह आवाज़ ए ज़मीर नाम से माण्डवी प्रकाशन गाजियाबाद और ज़मीर की मधुशाला शब्दांकुर प्रकाशन व उसकी दास्तान एन्विन्सपब पब्लिकेशन विलासपुर से प्रकाशित हुई।
मेरी नवीनतम रचना वृकवंश चरितम् भी शब्दांकुर प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी है जिसकी विषय सामग्री एक छोटे से व्यंग से प्रारंभ हो कर तीन सौ से अधिक पृष्ठों में विस्तारित देश की दशा व दिशा को इंगित करती है। महाभारत के पात्रों और घटनाओं को वर्तमान से इतना सहसंबद्ध कर दिया है कि मैं स्वयं भी आश्चर्यान्वित हूं।
बहरहाल आगे मेरी हिंदी, उर्दू व राजस्थानी काव्य संग्रह प्रकाशित कराने की दिशा में कार्यरत हूं। एक अंतिम बात जो मैं कहता आया हूं … मैं ग़लत हो सकता हूं किंतु इसे साबित करने की आवश्यकता होगी।
सम्पर्क
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ईमेल : hukam1@yahoo.co.in
पता : नाथ विला, आनंद पूरी, मोती डूंगरी रोड, जयपुर, राजस्थान