संक्षिप्त परिचय
डॉ. इन्दिरा शर्मा का जन्म 24 मार्च को हुआ। उन्होंने एम. ए. भूगोल तथा पीएच. डी. भूगोल की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने अध्यापक के रूप में आर्मी पब्लिक स्कूल, सागर सर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर, मध्य प्रदेश, प्रिंसिपल, ओजस्विनी उत्कर्ष महाविद्यालय दमोह, मध्य प्रदेश को अपनी सेवाएं दीं।
उनकी काव्य पुस्तकें ‘स्वप्नरत’ व ‘पुष्पराग’ प्रकाशित हो चुकी हैं। साथ ही विश्व हिन्दू कविता कोष में, हायकु कोष में, विभिन्न सांझा पुस्तकों में एवं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में भी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें विभिन्न साहित्यिक पुरूस्कार प्राप्त हुए हैं। इस ब्लॉग में आप उनकी कुछ प्रतिनिधि रचनाओं का आनंद ले सकते हैं-
लेखन
क्षण–क्षण, कल–कल करती
भावों की नदी जो बहती भीतर
वह तो ऊर्जा है, रचना धर्मिता
शब्दों की बुनती है माला
होती है समर्पित
वाणी के चरणों में,
हाथ में वीणा
श्वेत धवल कितनी सुन्दर–
मधुर स्वर।
फूट पड़ती है निर्झरिणी
वीना की तारों से
वही तो है ऊर्जा
जो गाती है मन भावन संगीत
नभ से धरती तक
राग मनोहर।
धरती गाती नि:शब्द कभी
कभी गाती कोयल की कुहू–कुहू वाणी
हर चित पाता अतीन्द्रिय सुख
भावो की नदी जो बहती भीतर
झर–झर–झर–झर।
(अनाथालय में रहने वाली लड़की की ओर से)
माँ! मैं तुमसे नाराज़ नहीं हूँ आज
वह थी कौन सी विवशता
जो लाई तुम्हे खींच, अनाथालय के द्वार।
क्या तुम डरती थी समाज के न्याय से
उसके पुरुष दंभ के अन्याय से
तो तुम गलत थीं माँ !
बड़े होकर मैं भी होती तुम्हारे साथ
समाज से लड़ने को तैयार,
एक और एक दो ही नहीं होते
कभी वह भी बन जाते हैं ग्यारह हाथ,
फिर तुम देखतीं परस्त होते
समाज के सफ़ेदपोश, धर्म के ठेकेदार।
तुम भूल गईं कैसे, नारी नहीं अबला
बन जाती है वह दुर्गा
जब होते हैं उसपर अत्याचार
माँ, मैं नाराज़ नहीं हूँ तुमसे आज।
वह थी कौन सी विवशता या
फिर था कोई अर्थाभाव
जो मुझे लाया अनाथालय के द्वार।
मैंने तुमसे नहीं माँगा था कोई साम्राज्य
रहती तुम्हारे बाहों के घेरे में कैद
निहारती तुम्हारी छवि दिन-रात
और पाती तुम्हारे चुम्बनों की बौछार।
आइसक्रीम, मीठे पकवान
नए जूते या नए फ्राक
मुझे नहीं थी उनकी दरकार
मुझे तो चाहिए था बस तुम्हारा प्यार
माँ, मै नाराज़ नहीं हूँ तुमसे आज
क्या था तुम पर कोई नियति का दंश
जिसने कर दिया था तुम्हारे प्यार को भ्रंश
मुझे जन्म देते ही क्या तुम गई थीं स्वर्ग सिधार।
कौन थे वे हाथ, जो ले आए थे मुझे
अनाथालय के द्वार।
पिता, परिवार या फिर था कोई दयावंत
बेचारी अनाथ का करने को उद्धार।
माँ, तुम्हें नहीं है ज्ञान
बराबरी का हक़ मांगती लड़की
आज भी है कितनी लाचार।
घर, बाहर, सड़क, बस या फिर बंद तहखानों में
आज भी हैं इन्हें खाने को भेड़िए तैयार
ऐसे में मात्तृ दिवस मानना है कितना बड़ा मज़ाक
माँ, मैं नाराज़ नहीं हूँ तुमसे आज।
मैंने बनाया आज तुम्हारा चित्र – रेखाकार
जिसमें धड़क रहा है तुम्हारा दिल, अदृश्य बे – आकार
मैं सर रख सोई हूँ उसपर आज
कितनी नि;चिंत और शांत
दोनों की धड़कने अब हो गईं हैं एकाकार
महसूस हो रहा है आज मुझे तेरा प्यार
माँ, मैं नाराज़ नहीं हूँ तुझसे आज।
फूट पड़ते हिम नदों से
तोड़ बंधन, सघन पहरे, उद्दाम लहरें
विजन वन में बह रहे हो
पत्थरों को सह रहे हो
गर्जना के स्वर घनेरे।
तीर बंधन में बंधे हो
खेलते गिरि अंचलों में
और गहरे और गहरे
चल दिए अनजान पथ पर
कौन जाने पंथ तेरे,
भय नहीं क्या तुझे घेरे।
उछलता है भू चरण पर
पूत पवित्र–स्निग्ध रे तू
मेरे लिए तू आचमन जल
सवेरे ही सवेरे।
जिंदगी खुद चली आती है मेरे पास
कभी हंसती हुई कभी उदास।
ये मेरी सुबह चुराती है मुझसे
वो गुजरे हुए तुमसे, पिछले –
पच्चीस साल, वक्त गुजरता रहा
क़तरा – क़तरा रहा सफ़र मेरा
फिर भी एकदम चुपचाप।
जैसे टूटे कोई कांच का गिलास
और छन्न की भी न हो कोई आवाज़
और पहन ले कोई ज़िंदगी भर के लिए
तनहा राहों का लिबास।
और कहे मुझसे, बस थोड़ी देर और
उस मोड़ तक आख़िरी बार।
ये मौन मूर्तियाँ शोभित
अंकित प्राचीरों पर
नहीं तोड़ती मौन।
ज्योति स्फुलिंग सी
प्रिय आलिंगन में सीमित
सुख रस भोगती कौन।
ये कटि सौष्ठव , ये झुके नयन के वातायन
झर–झर–झरती, प्रिय उत्कंठा,
ये महा प्रेम में अवगाहन,
जयों प्रातः जलज, नील–पीत
जल मध्य बीच,
चहुँ ओर सघन वन कानन
सस्मित स्व पंखुरियाँ खोले
कुछ मधुर हास पर न बोल।
ये अमर प्रेम की कथा खचित
स्तंभों पर, प्राचीरों पर,
नख–शिख, सुन्दर वर्णन
कजुरहो का विस्तृत प्रांगन
है कितना प्रेम मगन
यह धन।
जुलाहे, अब कपड़ा मत बुन
छीज गया तन, छीज गया मन
कहाँ हैं बे बोल, कहाँ है वह धुन
जुलाहे, अब कपड़ा मत बुन।
योग, भोग, मुक्ति, झूठे सब बंधन
तोड़ श्रृंखला को, अब तो जरा गुन
जुलाहे, अब कपडा मत बुन।
सत – चित, आनंद, इनके गह चरण
दुःख–सुख संसार के, अब मत चुन
जुलाहे, अब कपडा मत बुन।
यात्रा है अनंत, है न कहीं ठाँव
चलना दिक् दिगंत, तू शक्ति पुंज
जुलाहे, अब कपड़ा मत बुन।
मन–बुद्धि–अहम्, तेरे सूक्ष्म तन
भस्म हो जाएँगे ये भी, बात मेरी सुन।
ओ! शिखरों के प्रकृति पुरुष
तुम रहे किनारे खड़े
नयन से पीते
प्रकृति का रूप
मनोहर, मूक।
मैं सरिता
बहती तीरों के बीच
उछलती, भँवर बनाती
निश्छल भाव, मन–शांत, निष्काम
अविराम।
प्रतीक्षा रत, क्षण–क्षण, पल-पल
तारों को भारती अंक, लगाती हृदय
देखती अपलक दूर कोई आकाश दीप चुपचाप।
ओ शिखरों के प्रकृति–पुरुष
तुम हो प्रभात|
ज्वालाओं के पुंज, चिर विराट
मैं गहन रात्रि
स्व निद्रा में मग्न , मौन विश्रांति।
ओ, शिखरों के प्रकृति पुरुष
तुम सृष्टि बीज,
मैं सहज प्राप्ति।