शब्दांकुर प्रकाशन

पुस्तक समीक्षा – क्रंदन

पुस्तक : क्रंदन

रचनाकार : कल्पना शुक्ला त्रिवेदीक

समीक्षक : संध्या प्रह्लाद

जब हम किसी स्नेहिल के विषय में कुछ लिखते हैं तो सत्य और सम्पूर्ण न्याय कहीं न कहीं बाधित होते हैं। हमारा स्नेह उसके पक्ष में परिलक्षित होता है। कल्पना से अगाध स्नेह होने के कारण मुझे क्रंदन के बारे में कुछ भी लिखने में बहुत देर हुई।लगता था कि शायद कुछ कम ठीक लगेगा तो मैं शायद ईमानदारी से कह नहीं पाऊँगी, लेकिन जब पढ़ने बैठी तो अपने आप से संकोच में गढ़ गयी कि कल्पना जैसी विदुषी के बारे में मैंने सोच भी कैसे लिया कि कुछ ठीक न होने जैसा होगा।

“क्रंदन” असल में मुझे नारी की जीवन गाथा लगी। एक क्रंदन, जो कवियित्री के कोमल हृदय को इस तरह व्यथित कर गया कि पीड़ा और संवेदनशीलता काव्यात्मक पँक्तियों में प्रस्फुटित हो गयी और स्त्री के मार्मिक रूपों को चित्रित करती हुई समाज के समक्ष कई प्रश्नों को छोड़ती हुई उत्तर पाने के लिये मौन खड़ी है।

अपनी बात में कवियित्री कल्पना ने लिखा है कि “पीड़ा के शब्द नहीं होते…”
“नारी क्या है …?” प्रश्न से आरम्भ “क्रंदन” काव्य संग्रह “क्यों क्या होगा उसका जीवन ?” प्रश्न से ही समाप्त हुआ है। नारी से अंतहीन प्रश्न समाज में जुड़े हैं, जिन्हें हल करने के लिये कवियित्री ने समाज को ही चुनकर उत्तम चुनाव किया है।
“कैंची से तीव्र प्रखर आँखें” नारी की ओर उठने वाली नज़रों का यथार्थ चित्रण है।
“यह वीर भोग्या वसुंधरा, बदलो अपना मूल-मंत्र”…। एक आव्हान वाक्य लिख कर नारी के पक्ष उजागर किया है।
“क्रंदन” में नारी-दुर्दशा के दिखाए गये विभिन्न चित्र हृदय को करुणा, सहानुभूति और क्रोध से भर देते हैं।

कवियित्री कल्पना ने स्त्री के बहुत से गुणों को रेखांकित किया है। जैसे- ‘कोमल स्पर्श कर सकता है, पल में कितने रोगी निदान’ (चिकित्सक), ‘उसकी नन्हीं सी तरल हँसी, करती सूखा मन हरा-भरा’ (वात्सल्य), ‘उसका कमनीयपन लखकर, कितनों का पागल मन ठहरा ‘(श्रृंगार), ‘तो नारी ने उत्पन्न किये, सैकडों बार हीरे हज़ार’ (वैभवशाली), आदि नारी सम्मान को दूषित करने की घटना को किस प्रकार एक व्यवसायिक रूप दिया जाता है वो कवियित्री के हृदय को गहन रूप से आंदोलित करता है ‘कितनी ही सत्य-कथाओं ने उससे अपना व्यपार किया’ कवियित्री कल्पना ने शब्दों के नये प्रयोग भी किये हैं जो यदा-कदा ही देखने को मिलते हैं। जैसे एक महत्वपूर्ण प्रयोग कि उन्होंने ‘उसकी टहनियाँ कुतर डाला’ और ‘अब पूर्ण बन चली लठ्ठा सी’ जैसी पँक्तियाँ लिख कर किया। ‘टहनियाँ कुतर डालीं’ और ‘बन चली लठ्ठी सी’ जैसे लिंगनुसार शब्द जोड़े जाते रहे हैं।

ससुराल के लिए लिखा गया ‘पतिपुर’ शब्द भी बहुत सुंदर प्रयोग प्रतीत होता है। कविता की जरूरत अनुसार शब्द चयन किये गये हैं। हिंदी शब्दों के अलावा उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्दों को भी सम्मानपूर्वक स्थान दिया है। पर एक बात कुछ खटकती है कि कवियित्री कल्पना ने आरम्भ में अपनी बात लिखते हुये उम्मीद जताई है कि यह एक स्त्री की व्यथा-व्यवस्था पर आधारित काव्य-संग्रह है, अतः स्व-वर्ग (स्त्री-वर्ग) से अधिक अपेक्षा है, परन्तु जैसे-जैसे आप “क्रंदन” को पढ़ते जायेंगे वैसे-वैसे आप जानेंगे कि यह पुस्तक जितना स्त्री वर्ग को द्रवित करती है उतना ही पुरुष हृदय भी को भी झकझोरती है। उन्हें दर्पण दिखाती है और नारी सम्मान के लिये प्रेरित करती है। इस तरह “क्रंदन” दोनों वर्गों को कुछ देकर जाती है और अपना कायल बनाती है।

यूँ तो बहुत कुछ समाहित है “क्रंदन” में परन्तु ज्यादा लिखना उचित न होगा। खरीद कर पढ़ने से दुगुना आनन्द मिलेगा। एक बार खरीदिये, पढ़िये और अपने पुस्तकालय की शोभा बढाइये। सशक्त काव्य रचना के लिये कवयित्री कल्पना शुक्ला त्रिवेदी और खूबसूरती के साथ प्रकाशित करने के लिये “शब्दांकुर प्रकाशन” (नई दिल्ली ) को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ।

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