ईश्वर ने जब हमें बनाया तो हर व्यक्ति को एक ऐसी विशेषता से समृद्ध किया जो हमें लाखों की भीड़ में भी सबसे अलग खड़ा कर सके। पर हम ठहरे साधारण मनुष्य, हमें दिखता ही वही है जो हमारे पास नहीं है और हमें भाता वही है जो हम हो नहीं सकते। अपनी एक अच्छाई को पोषित करने के स्थान पर हमारा प्रयास ये होने लगता है कि अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति को हराया कैसे जाये या इसके जैसा कैसे बना जाये ?
ये प्रतिस्पर्धा की भावना व्यक्ति को किसी किनारे नहीं लगाती, आजीवन इच्छाओ और महत्वकाँक्षाओं के समुद्र में हिचकोले खाते रहते हैं हम.. क्योंकि जो हम हैं उससे संतुष्ट नहीं हो पाते और जो हम हैं ही नहीं वो बनना चाहते हैं। इन बातों से हमारा परिवार, स्वास्थ्य, जीवन भी प्रभावित होता है परंतु हम इसे पाल के रखते हैं ।
यह भाव कि जो किसी और के पास है वो मेरे पास क्यों नहीं, मुझे तो वही चाहिए। यह भाव जीवन को ईर्ष्या और नकारात्मक विचारों से भर देता है ।धीरे धीरे यह नकारात्मक धारणा हमारे जीवन के हर क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लेती है। हमें पता भी नहीं चलता और हम अपनी शान्ति, सुख, नींद, आराम सब खोने लगते हैं, साथ ही साथ हमसे जुड़े लोगो को भी हमारी इस कमज़ोरी का शिकार होना पड़ता है।जीवन के सारे रस सब आनंद खत्म हो जाते हैं।
इस सबकी सबसे बड़ी वजह है तुलना करना। जब आप स्वयं की तुलना किसी से करने लग जाते हैं वहीं से आप खुद को कमतर समझने लगते हैं। जबकि जरूरत है अपने अंदर की श्रेष्ठता को खोजकर, समझकर उसका विकास करने की। बेशक एक व्यक्ति ने चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत अच्छा नाम कमाया हो किन्तु वही व्यक्ति साहित्य में कुछ नहीं कर पाता। तो यह समझना बेहद आवश्यक है कि हमारे अंदर क्या है जो हमें औरो से अलग बनाता है। तुलना करने से बेहतर है अपनी योग्यता को निखार कर उस क्षेत्र में आगे जाना जहाँ सचमुच हमारी जरूरत है और हमारी प्रतिभा की कद्र। जहाँ हम दूसरों के लिए आदर्श स्थापित करते हैं और स्वयं का आसमान बना सकते हैं जहाँ हम कितनी भी ऊँचाई तक उड़ सकते हैं ।
कल्पना शुक्ला