संक्षिप्त परिचय
मधुश्री के. जी का पूरा नाम मधुश्रीवास्तव है। वह आकाशवाणी, दिल्ली में पूर्व ग़ज़ल गायिका रह चुकी हैं। उन्होंने कला संकाय में स्नातक,संगीत प्रभाकर तथा पद्मश्री उस्ताद हफ़ीज़ अहमद ख़ान साहेब द्वारा संगीत में उच्चतर शिक्षण प्राप्त किया है।
मधुश्री के. जी की विशेष रूचि लेखन एवं संगीत में रही है। उन्होंने अनेक आलेख, कहानियां, लघुकथाएं व गद्य के अतिरिक्त कविता, गीत, नवगीत, दोहे, पद एवं कुंडलियां जैसी अनेक विधाओं पर कार्य किया है।
उनकी कई कृतियाँ- ‘मिट्टी से देह की गंध तक’ (काव्य संग्रह), भारत के नौनिहाल (बाल प्रेरक काव्य संग्रह), चल बंधु उस ठौर चलें (गीत एवं नवगीत संग्रह), श्री कृष्ण सुदामा गाथा (खंड काव्य) प्रकाशित हो चुकी हैं, साथ ही कई साझा संकलनों में उनकी रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं जैसे- नारी हूँ मैं, माटी मेरे देश की, लम्हे, बाल विश्व, मेरा भारत महान, परिमल, कौस्तुभ आदि। इस ब्लॉग में आप मधुश्री जी की कुछ प्रतिनिधि रचनाओं का आनंद ले सकते हैं-
लेखन
ईंट सरीखी
मन की सुधियाँ
कालखंड की
भूलभुलैया
दीवारों में चिन
छुप बैठी।
पतझर पत्तों
की पीड़ा कब
अलाव छाती
का सुलगाने
इक चिंगारी बन
आ बैठी।
सांझ सवेरे
की खिड़की से
अलख चिरैया
चोरी चोरी
सिरहाने छुप कर
आ बैठी ।
राम नाम की कंठी
और भगवा चोले में
सपनों के हाट सजे
रोज़ बगुला टोले में।
सरसों हथेली रोज
रोप रहे काट रहे ।
सपनों का अंजन नित
पार रहे आंज रहे ।
तोते के प्राण छुपे
टोने टटके झोले में।
सपनों के हाट सजे
रोज़ बगुला टोले में।
परदे के आगे कुछ
कुछ पीछे खेला है ।
झूठ की मुंसफी में
झूठा हर चेला है ।
सेंध लगी धर्म में
बारूद भरी गोले में।
सपनों के हाट सजे
रोज़ बगुला टोले में ।
आहत मन ने तोड़ी तंद्रा
विश्वासों के दीप बुझाए।
फिर भी
अंतस का इक कोना
पीर प्रीत की लिए छुपाए।
मन अधीर चित्त की चंचलता
धीरज के तटबंध डुबाए।
फिर भी
भूली बिसरी सुधियां
छद्म वेश में मुझे रिझाए।
ना ही प्रसाद की
घोषित
स्त्री अबला हूँ मैं ।
ना ही
करुणा की वेदी पर
अश्रु भरे
आँचल की
सिसकी
समिधा हूँ मैं ।
मैं हूँ प्रतीक
एक
नए सृजन की
नव उत्कर्ष
विधा सी मैं ।
आकाश
बाहों में भर कर
पंख पसारे
सपनों के
पार क्षितिज के
उड़ जाऊं
अनिला सी मैं।
क्यूँ कर्मभूमि की माटी को
ये युगकारी संत्रास मिला ।
बोलो माधव
तुम चुप क्यूँ हो?
सम्बन्धों की सूली चढ़ सब
क्यूँ रक्त अभेद हुए घाती।
क्यूँ वंश बेल को रक्तबीज
सम व्याघाती अभिशाप मिला?
बोलो माधव
तुम चुप क्यूँ हो?
क्यूँ अधिकारों की काया में
आक्रोश जनित व्रण हुआ गलित।
क्यूँ रण आँगन को रक्तांगन
सापेक्ष जुगुप्सित शाप मिला।
बोलो माधव
तुम चुप क्यूँ हो?
क्यूँ हंसा सत्य हुआ घायल
तपतेज सूर्य सम हुआ अस्त।
क्यूँ देवसरी सुत श्वेतमना
शरशैया का संताप मिला।
बोलो माधव
तुम चुप क्यूँ हो ।
कमरे में क़ैद स्त्री
स्वप्न देखती है
हर उस पंछी को
आज़ाद करने का
जिनके उड़ने से पहले
पंख कतर दिए
गए हों।
प्रेम से वंचित स्त्री
स्वप्न देखती है
हर बंजर जमीन को
हरियाने का
जहां अभी तक
कुदरत ने एक भी
प्रेम के फूल नहीं
खिलाए हों।
औरत जब भूखी
होती है तो
स्वप्न देखती है
द्रौपदी का अक्षय पात्र
बनने का
ताकि कोई भूख से
बिलबिला कर
इस दुनिया को
अलविदा
न कह जाए।
ऐसी होती हैं
ये स्त्रियां।
हो गए हैं जान लेवा
अब हवाओं के थपेड़े।
आँख की नमी का पानी
जलते तवे पर बूँद सा है।
ज्यादती के कटघरे में
तोड़ती दम हैं व्यथाएं।
भाव माटी हुई बंजर
सूखती मन की लताएं।
शहर की गूंगी हवा में
बस गूँजता उन्माद सा है।
हैं खड़े लाचार जिसने
दीप रातों में जलाए।
अन्ध कारा में दुबकते
डर रहे उनके ही साये।
पीठ पर विक्रम की बैठा
विध्वंस का बेताल सा है।
लपट ऊँची उठ रही है
खेतों में खलिहानों में।
बुझ रहे है चूल्हे, आग
दहक रही शमशानों में।
दबंग राजनीति खेले
उलटदाँव छ्द्मनीति का है।