जन्म तिथि – 15 अगस्त, 1958
जन्म स्थान – करौल बाग़, नई दिल्ली
शिक्षा – बी कॉम , एम ए हिंदी, सी ए आई आई बी
अभिरुचि – कविता, नाटक, संपादन, समीक्षा
सम्प्रति – बैंक मैनेजर पद से सेवावकाश के बाद स्वतंत्र लेखन,
सलाहकार सदस्य, फ़िल्म सेंसर बोर्ड
परिचय
आपको अपने पहले ही कविता संग्रह पर हिंदी अकादमी, दिल्ली सरकार का साहित्यिक कृति सम्मान (1996) प्राप्त हुआ। वातायन (लंदन) का अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान (2005); कविता का प्रतिष्ठित ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’ (2010) भी आपको प्राप्त है।
देश ही नहीं विदेशों (इंग्लैंड के 8 प्रमुख शहरों, बैंकॉक, थाईलैंड, जोहांसबर्ग, साउथ अफ्रीका आदि) में आयोजित अनेकानेक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों, विश्व हिंदी सम्मेलनों और कवि सम्मेलनों में भी आपने महत्वपूर्ण भागीदारी की है। देश के प्रतिष्ठित लालकिला कवि सम्मेलन और श्रीराम कवि सम्मेलन में भी आपने काव्यपाठ किया है। लेह, लद्दाख से लेकर पोर्टब्लेयर तक और मुंबई से लेकर कोलकाता तक भारत के लगभग सभी प्रमुख शहरों के कवि सम्मेलनों में आप काव्यपाठ कर चुके हैं।
साहित्य की अंतरराष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका ‘अक्षरम संगोष्ठी’ का आपने 12 वर्षों तक कुशल संपादन किया है। अनेकानेक नुक्कड़ नाटकों में आपने न केवल 500 से अधिक प्रस्तुतियों में अभिनय किया है अपितु 50 से अधिक लोकप्रिय नुक्कड़ नाटक गीत भी लिखे हैं, जोकि आपकी ‘अग्निध्वज’ नामक पुस्तक में संग्रहित हैं। आपको नुक्कड़ नाटकों के क्षेत्र में भारत सरकार के संस्कृति विभाग से ‘सीनियर फैलोशिप’ भी प्राप्त है।
बैंक प्रबंधक के रूप में सेवानिवृत्ति के बाद आजकल आप स्वतंत्र लेखन में संलग्न हैं और अनेक साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।वर्तमान में आप भारतीय फ़िल्म सेंसर बोर्ड , सूचना व प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार में सलाहकार सदस्य के नाते भी अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
प्रकाशित पुस्तकें
ज़िन्दगी मुस्कुराएगी
वीडियो गैलरी
लेखन
जागा लाखों करवटें, भीगा अश्क हज़ार।
तब जा कर मैंने किए, काग़ज काले चार।।
छोटा हूँ तो क्या हुआ, जैसे आँसू एक।
सागर जैसा स्वाद है, तू चखकर तो देख।।
मैं खुश हूँ औज़ार बन, तू ही बन हथियार।
वक़्त करेगा फ़ैसला, कौन हुआ बेकार।।
तू पत्थर की ऐंठ है, मैं पानी की लोच।
तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच।।
मैं ही मैं का आर है, मैं ही मैं का पार।
मैं को पाना है अगर, तो इस मैं को मार।।
ख़ुद में ही जब है ख़ुदा, यहाँ-वहाँ क्यों जाय।
अपनी पत्तल छोड़ कर, तू जूठन क्यों खाय।।
पाप न धोने जाउँगा, मैं गंगा के तीर।
मजहब अगर लकीर है, मैं क्यों बनूँ फ़क़ीर।।
सब-सा दिखना छोड़कर, ख़ुद-सा दिखना सीख।
संभव है सब हों ग़लत, बस तू ही हो ठीक।।
ख़ाक जिया तू ज़िंदगी, अगर न छानी ख़ाक।
काँटे बिना गुलाब की, क्या शेखी क्या धाक।।
बुझा-बुझा सीना लिए, जीना है बेकार।
लोहा केवल भार है, अगर नहीं है धार।।
सोने-चाँदी से मढ़ी, रख अपनी ठकुरात।
मेरे देवी-देवता, काग़ज-क़लम-दवात।।
ग़ज़ल का साज़ बजे है, कभी कभी ही सही
तुम्हारी दाद मिले है, कभी कभी ही सही
अगरचे दर्द है तारी तमाम हस्ती में
जिगर में पीर हंसे है, कभी कभी ही सही
यूं पतझरों की सदाओं के बीच हैं, फिर भी
बसंत राग छिड़े है, कभी कभी ही सही
नहीं है ऐसा कि दिल का हमें पता ही नहीं
हमें भी इश्क़ रुचे है, कभी कभी ही सही
तुम्हारा हिज्र कभी वस्ल को भुला न सका
अभी भी हूक उठे है, कभी कभी ही सही
मैं भी हीरा हूँ , मुझे यूँ ही न फेंका जाए
मेरी ख़्वाहिश है मुझे और तराशा जाए
ये भी मुमकिन है कहीं आँच बची हो इसमें
राख को आओ ज़रा फिर से कुरेदा जाए
ज़ज्ब हैं इसमें मेरे ख़्वाब ,मेरे आँसू भी
आँख से टपका लहू यूँ ही न ज़ाया जाए
क्या पता फिर से धड़क उट्ठे हर इक तार इसका
दिल के टुकड़ों को मेरे फिर से समेटा जाए
अपनी हर हार को इक जीत में ढाला मैंने
इस तरह से भी मेरी हार को परखा जाए
मौसम सता रहा है, कहाँ हो कहाँ हो तुम
किसमें निहाँ-निहाँ से हो, किसमें अयाँ हो तुम
आ जाओ, आ भी जाओ, जहाँ हो जहाँ हो तुम
बेशक फ़लक़ में दूर कोई कहकशाँ हो तुम
भेजे थे ख़त में अश्क जो तुमने सुखा-सुखा
ऐसा है क्या कि आज भी उनमें रवाँ हो तुम
तुम रफ़्ता-रफ़्ता आज भी हममें समा रहे
अब तक नहीं बँधा है जो ऐसा समाँ हो तुम
तुम पर न जां निसार करें हम तो क्या करें
सौ-सौ ‘नहीं-नहीं’ में फ़क़त एक ‘हाँ’ हो तुम
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