जन्म तिथि – 3 सितम्बर 1951
जन्म स्थान – बुलंदशहर, उत्तरप्रदेश
शिक्षा – एम. एससी. (कृषि रसायन)
अभिरुचि – धर्म, दर्शन, पुरतत्व, साहित्य
सम्प्रति – सेवानिवृत्त, स्वतंत्र लेखन
परिचय
मुमताज ‘सादिक़’ का जन्म 3 सितंबर 1951 को उत्तर प्रदेश राज्य के बुलंदशहर के ग्राम खाद मोहन नगर में हुआ। उनकी माता का नाम श्रीमती सलीमा तथा पिता का नाम श्री हाजी अल्लाह मेहर था। पिता स्टील व कॉपर के टैक तथा अन्य उद्योगों के स्टील स्ट्रक्चर बनाने की ठेकेदारी का कार्य करते थे।
मुमताज ‘सादिक़’ की प्रारंभिक शिक्षा ग्राम की प्राथमिक पाठशाला में हुई। प्राथमिक शिक्षा के उपरांत 2 वर्ष कुरान तथा उर्दू की शिक्षा दिल्ली के मोरी गेट इलाके में स्थित मदरसा अब्दुल रब में हुई। उर्दू तथा अरबी की आधारभूत शिक्षा प्राप्ति के पश्चात पुनः कक्षा 6 में गांव के निकट ग्राम बरौली बासुदेवपुर में प्रवेश लिया और वहां से सन 1964 में जूनियर हाई स्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की। इसके उपरांत कक्षा 9 में उत्तर भारत के प्रसिद्ध कृषि कॉलेज अमर सिंह कॉलेज, लखावटी से मेरठ विश्वविद्यालय के अधीन कृषि रसायन में सन 1972 में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की।
शिक्षा समाप्ति के पश्चात 1972-73 में खाद्य एवं रसद विभाग के अंतर्गत हाट निरीक्षक (मार्केटिंग इंस्पेक्टर) की सर्विस की। 1973 में गन्ना विकास विभाग में नियुक्ति के उपरांत लगभग एक वर्ष मवाना, मेरठ परिक्षेत्र में विभाग कार्यों का क्षेत्र में रहकर प्रशिक्षण प्राप्त किया। नवंबर 1974 में बदायूं सहकारी चीनी मिल में गन्ना विकास निरीक्षण की नियुक्ति हुई और अगस्त 1980 में रमाला, मेरठ (वर्तमान बागपत जनपद) में ज्येष्ठ गन्ना विकास अधिकारी के पद पर नियुक्ति हुई। मई 1986 में ननौता, सहारनपुर क्षेत्र में गन्ना विकास अधिकारी के पद पर तैनाती हुई और 1993 में इसी पद पर नादेही, नैनीताल (अब शहीद उधम सिंह नगर) में स्थानांतरण हुआ। 1996 में रुद्रपुर, बिलासपुर क्षेत्र में उप मुख्य गन्ना अधिकारी के पद पर नियुक्ति हुई। 1998 में पुनः ननौता, सहारनपुर में सेवाकाल रहा। 1999 में पुवायाँ, शाहजहांपुर स्थानांतरण हुआ तथा सन् 2000 में बदायूं में मुख्य गन्ना अधिकारी पद पर पदोन्नति और स्थानांतरण हुआ। 2004 में नानौता, साहरनपुर तथा 2008 में रमाला, बागपत में कार्यकाल रहा तथा 30 सितंबर 2011 को सेवा अवकाश प्राप्त किया।
मुमताज ‘सादिक़’ जी को लेखन में अभिरुचि अपने बड़े भाई हाजी अल्लाह नूर साहब से प्राप्त हुई, जो उनके साहित्यिक गुरू भी हुए। पहली कविता 1964 में कॉलेज की पत्रिका में छपी, इसके बाद देश के जाने माने समाचार पत्रों/ पत्रिकाओं में उन्हें स्थान मिला।
प्रकाशित पुस्तकें

ज़िन्दगी मुस्कुराएगी
वीडियो गैलरी
लेखन
तन में हलचल हो जाती है मन में हलचल हो जाती है
जो बात दिलों तक जाती है वो बात ग़ज़ल हो जाती है
ये दिलवालों की बस्ती है याँ हर सू प्यार परस्ती है
याँ दिल से बातें होती हैं, हर मुश्किल हल हो जाती है
इक याद बहुत हर्षाती है इक याद बहुत तरसाती है
जो याद बहुत तरसाती है वह ताजमहल हो जाती है
घर-आँगन ध्यान नहीं देते, बूढ़ों को मान नहीं देते
जब बाड़ खेत को खाती है, बर्बाद फ़सल हो जाती है
ज़ुल्मत में जलने वालें की, शोलों पर चलने वालों की
काँटों में खिलने वालों की, दुनिया कायल हो जाती है
पतझड़ नवरस हो जाते हैं, पत्थर पारस हो जाते हैं
जब प्यार से कोई छूता है, मिट्टी संदल हो जाती है
चराग़ों ने शबे ग़म को तराशा हमने देखा है
भरी बरसात में सावन को प्यासा हमने देखा है
तमन्ना हर किसी की हद से ला-महदूद है लेकिन
तमन्नाओं का हर कांधे पे लाशा हमने देखा है
जो सूरज बख़्शता है सारे आलम को तवानाई
उसे भी गहन में होते ज़रा सा हमने देखा है
समझने वाले ख़ुद को अशरफुल मख़लूक़ ऐ इंसां
सदा ख़ाली तेरी ख़्वाहिश का कासा हमने देखा है
कभी सहरा ने बेमौसम घनी बरसात देखी है
कभी बरसात में दरिया को प्यासा हमने देखा है
कि लोगों की तबाही का तमाशा देखने वाले
तुझे भी एक दिन बनते तमाशा हमने देखा है
उनकी यादों के साए ग़ज़ल बन गई
वो तसव्वुर में आए ग़ज़ल बन गई
एक बच्चे ने पहली दफ़ा माँ कहा
गीत ख़ुशियों ने गाए ग़ज़ल बन गई
मस्जिदों की अज़ां, मंदिरों के भजन
प्यार ने गुनगुनाए ग़ज़ल बन गई
तितलियों के बदन रंग से भर गये
गुल खिले मुस्कुराये ग़ज़ल बन गई
मौसमे गुल ने पिंजरे के दर खोलकर
जब परिंदे उड़ाए ग़ज़ल बन गई
कुछ परिंदे हवाओं में बहके हुए
शाम घर लौट आए ग़ज़ल बन गई
दर्द अपनों का ऐसा कि दिल भर गया
आँख रो भी न पाए ग़ज़ल बन गई
कुफ़्र के फ़तवे लगाकर शहर क़ाजी खो गए
दार के आगोश में दरवेश ग़ाजी हो गए
शेख़ साहिब ने किया मस्जिद में क्या हूरों का ज़िक्र
छोड़ मैख़ाना मियां मैकश नमाज़ी हो गए
खैरो-गम सब एक जैसे हैं फकीरों के लिए
मिल गया जो भी उसी के साथ राज़ी हो गए
हम प्याला हम निवाला सियासतो-मज़हब हुए
सियासतो-मज़हब के माने जालसाज़ी हो गए
आपसे पहले भी जो कहते थे अपने को ख़ुदा
ख़ाक़ में उनके तकव्वुर ग़र्के-माज़ी हो गए
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