संक्षिप्त परिचय
पुष्पा मेहरा का जन्म 10 जून को मौरावाँ, ज़िला उन्नाव (उ.प्र.) में हुआ। उन्होंने उन्होंने एम .ए. (संस्कृत, समाज शास्त्र) की शिक्षा प्राप्त की है। उनकी प्रकाशित कृतियों में- अपना राग, अनछुआ आकाश, रेशा-रेशा, आड़ी-तिरछी रेखाएँ, सागर-मन, तिनका-तिनका हैं।
उनका लेखन के अंतर्गत मुख्यतः विभिन्न ब्लॉग, पत्र–पत्रिकाओं, समकालीन क्षणिका, साहित्य कुञ्ज ई पत्रिका कनाडा, हिंदी चेतना कनाडा साक्षात्कार व संस्मरण की समीक्षा तथा साझा संकलनों में सामान्य कवितायेँ, क्षणिकाएँ, बाल कवितायें, हाइकु, ताँका, सेदोका, हाइगा, चोका, दोहे छपते रहे हैं। इस ब्लॉग में आप उनकी कुछ प्रतिनिधि रचनाओं का आनंद ले सकते हैं-
लेखन
मील का पत्थर बना मैं
नित निरंतर बढ़ रहा।
गणक बन करके खड़ा मैं
फासलों को गिन रहा।
हाशिये पर हो खड़ा मैं
आँधियों से लड़ रहा।
धूल का बोझा उठाये
लक्ष्य हासिल कर रहा।
ढाल पर भी मैं खड़ा
पर्वतों पर चढ़ रहा
रात दिन जो घट रहा है
चिह्न उनका बन खड़ा।
पथिक मैं पथ का बना
साथ सबके चल रहा।
मील का पत्थर बना मैं
नित निरंतर बढ़ रहा।
रात भर सोये नहीं क्यों ?
स्वप्न सारे छल रहे क्यों
घिर तमस बादल घनेरे
रोशनी पर छा रहे क्यों
रात भर सोये नहीं क्यों
यह कभी मुझसे न पूछो।
उलझनें नव द्वार खोजें
द्वार हर पहरे बिठायें
प्रहरी सजग सोते नहीं
श्वास की धड़कन बढ़ायें
रात भर तकिये भिगोये
क्यों भिगोये यह न पूछो।
वासना मन घेर लेती
स्वप्न भी धुँधले दिखाती
नेह निर्मल सर पर भी
शैवाल बन कर विचरती
अहं के काँटे नुकीले
प्रेम दामन चीरते हैं
क्यों! कभी मुझसे न पूछो।
कहीं खाईं-खड्ड गहरे
कहीं नद-नाले उफनते
भावना की हर गली में
अंगार क्यों कर बिछ रहे
झाड़ बन सम्बन्ध न्यारे
उपलों से क्यों सुलग रहे
यह कभी मुझसे न पूछो।
चिनगारी क्यों धधक रही
आँधियों की थपकियाँ भी
क्यों मौसमों को भा रहीं
दुश्मनी की काई बिछी
कैसे बिछी क्यों कर बिछी
यह कभी मुझसे न पूछो!!!
बीन भी स्वर भी वही हैं
हर कसे तार से अब क्यों
स्वर सभी कर्कश निकलते
राज क्या मन को जो मथते
भाव का हर शब्द गूँगा
गीत का हर स्वर अबूझा।
भाई का निज भाई से
क्यों सहज सम्वाद टूटा
ऊँचे भवन अट्टालिका
का विखण्डित हो बिखरना
जान कर भी मौन रहना
स्वजन मन को भा गया क्यों
यहकभी हमसे न पूछो !!
कैसा समय अब आ गया, रेत का समन्दर यहाँ
हर दिलों में बह रहा, इंसान के संग–संग
ईमान भी अब बिक रहा।
दया,ममता,नेह श्रद्धा तुल रहे हैं अब यहाँ
आतंक के बबूल घने उग रहे हैं अब यहाँ।
मन की क्यारी में भ्रमर दल अब कहीं मँडराते नहीं
मदमस्त झोंके हवा के विषधरों से बच पाते नहीं।
स्वार्थ के बादल घनेरे छा रहे,कपट के खड्ड गहराते जा रहे
मन की कोमल क्यारियों में बारूद अब फटने लगा
रक्त रंजित भूमि कण फफक –फफक कर रो रहा
आके कोई आँसू सहेजे ऐसा समय अब है कहाँ !
कंटकों के झाड़ में फँसा है सारा नेह बंद
भावना के दुश्मनों ने लूटा है सारा मलय वन
रोशनी के दीप मद्धम हो रहे
खंजर घृणा के और पैने हो रहे
साया भी अब साए से घबराने लगा
रंग दहशत का गहराने लगा।
आँखों से आँखें भी अब आँखें चुराने लग गईं
दोस्ती का हाथ कोई बढाए तो बढ़ाए किस तरह !
लेखनी ! तुमसे गुज़ारिश है बस इतनी यही
प्रेम की स्याही में डुबा के सारे वर्ण
लिख दो कोई राग ऐसा मन हरण , गाकर जिसे-
बरस पड़ें सम्वेदना के सघन घन।
सूरज की गोदी से फिसली
गिरी धरा पर धूप
पेड़ों के बालों से उलझी
महुआ का रस चूस
वनों में खेल रही है खूब
गिरी धरा पर धूप।
हवा गाँव की अल्हड़ बाला
मारे दिल पर तीर
ताल –तलैया वापी -पोखर
षित गये सब सूख
पसरकर अकड़ रही है धूप !!
टप-टप, टप–टप बहे पसीना
तन निचोड़ती खूब
सूरज की गोदी से फिसली
गिरी धरा पर धूप !!
आश्रय पा बीज का-
माँ धरा की गोद में पल कर बढ़ी हूँ
शरीर-परिवार-जाति-धर्म-समाज के
कुंदन से गढ़ी हूँ
चमक इसकी खो ना जाए
इसी धुन में रम रही मैं-
वासना जालों से धूमिल हो रही हूँ।
कोई मुझ को बुलाता चाँद- तारा- सूर्य बनकर
कोई कह रहा है कि तुम तो भ्रम में रमी हो।
कोई मन में गुनगुनाकर कह रहा है
तुम माटी, तुम पवन, तुम गगन,
तुम अग्नि, तुम जल से बनी-
जन्म के आधार चक्रों से बँधी हो।
स्वतंत्र हस्ती है तुम्हारी पर सीमाओं से बंधी हो।
कोई मन में बसा भोंरे सा गुनगुनाता
कह रहा- ‘नाद’ वह तुम-
घूमता जो सात चक्रों में।
दूसरों में इंसानियत देखने वालों
जरा अपने भीतर झाँक कर तो देखो
आदिम युग से अब तक तुम
अपने आप को कितना इन्सान बना पाये हो
भटकते रहे जंगलों में
बदलते रहे स्थान आकाश की छत और
धरती के बिछावन पर
बनाया आवास प्रकृति की गोद में,
भागते रहे पशुओं के पीछे
जीते रहे प्राकृतिक उपादानों के भरोसे
तोड़े तुमने पत्थर ,जलाई आग चकमक से
खानाबदोश तुम ,निरक्षर तुम
साक्षर बन ,सभ्य बन ,विज्ञानी बन
विकास की आकाश छूती छतों पर खड़े हो
विकास की होड़ में ,बुद्धि बल लगा
चाँद को जीत ,सूरज की थाह ले रहे हो
वहीं-
कल युग की तेज रफ्तार संग भाईचारे में
इंसानियत और इंसाफ़ का गलाघोंट रहे हो
बम विनाश के बरसा रहे हो
एक दूसरे का हक़ छीन रहे हो,
चप्पा-चप्पा भूमि की प्यास
एक दूसरे के खून से मिटाते तुम
विकास के नाम पर विनाश के बीज बो रहे हो
मानवता प्रकृति के द्वार पर खड़ी
विकास के दु:शासन से-
अपनी इज्जत की भीख माँग रही है।
चीत्कार करती धरती-
सूने पड़े पत्थर वनों में शन्तिपथ ढूँढती
पशुओं की प्रजाति बचाती
पक्षियों के पंख टटोलती,
इस विस्तृत आकाश में-
अपना सम्पूर्ण समाना चाहती है।
घने कोहरे के बीच
अपने घर से दूर
उजड़ी बस्ती की यादों के साये में
कसमसाता,काँपता-
अनजान शहर में वह ८ वर्षीय
ऊँचे –ऊँचे खंडों की नींव जमाता
एक–एक ईंट में अपनी मन: शक्ति जोड़ता
दीन- दुनियाँ से बेख़बर
ठेकेदार की झिड़कन और मार का शिकार
दो जून की रोज़ी- रोटी का जुगाड़ करता
धीरे – धीरे , माँ –बाप को भूल गया।
एक पत्र जो डाकिया अभी-अभी दे गया था
किसी से पढ़वा भी नहीं पाया था कि अचानक
गारे का तसला उसके सर पर आ गिरा
देखते –देखते वह और पत्र दोनों ही
गारे में डूब गये , पत्र के अक्षर सभी
मिट्टी में मिल गये ,
तभी से वह विक्षिप्त सा घर जाने को
उतावला हो उठा है ;
एजेंट जो –
काम दिलाने के लिए
उसे गाँव से लाया था
लापता है , गारे की कोटिंग किया पत्र
हाथ में लिए , दबदबाती आँखों से वह
पत्र पढ़वाना चाह रहा है।
उसे तो गाँव का नाम, घर का पता
कुछ भी तो नहीं याद,
घर जाने की धुन में
वह स्टेशन पर आ बैठा है।
ट्रेनें तो अदबदाती भाग रही हैं
वह ख़ाली थैला लिए
प्लेटफार्म की बेंच पर बैठा
हर आने –जाने वाली गाड़ी को
ऑंखें फाड़-फाड़ कर आज भी देख रहा है,
आती –जाती , उतरती – चढ़ती सवारियाँ
उसे देख आगे बढ़ जाती हैं कुछ तो उसे
पैसे देकर अपना धर्म निभाना चाहती हैं,
किन्तु वह तो मिट्टी से सना कागज़ लिए
प्लेटफार्म पर अपने गाँव का, घर और गाड़ी का
सपना देख रहा है,
पर उसे नहीं पता की उसे किस गाँव जाना है
सामने लगी घड़ी की सुइयाँ अपना चक्र
पूरा कर रही हैं , दोनों ही एक दूसरे से
जुड़े और एक दूसरे से बेख़बर स्टेशन पर ठहरे हैं।
सूरज की गोदी से कविता की दसवीं पंक्ति में तृषित होगा न कि षित कृपया ठीक करने का कष्ट करें|