शब्दांकुर प्रकाशन

अनछुए दरीचे

पुस्तक समीक्षा : अनछुए दरीचे

लेखिका – डॉ. पूर्णिमा भटनागर

‘अनछुए दरीचे’ डॉ. पूर्णिमा भटनागर की आत्मा से फूटी कहानियों का ऐसा कथा-संग्रह है, जो जीवन के उन धुंधले कोनों में हमें झाँकने का अवसर देता है, जहाँ अक्सर हमारी दृष्टि नहीं पहुँच पाती। यह पुस्तक एक भावनात्मक यात्रा है, जिसमें पाठक एक-एक बंद खिड़की खोलते हुए जीवन के छिपे हुए दर्द, बिखरी हुई आशाएँ, और मौन संघर्षों से परिचित होता है। हर कहानी एक अलग दरीचा है। कहीं से रौशनी छनकर आती है, कहीं धुंध गहरी है, और कहीं एक उम्मीद की झिलमिलाती किरण है।
लेखिका ने जीवन के सामान्य दिखने वाले क्षणों को असाधारण संवेदना से संजोया है। कहानियाँ जीवन के उन पहलुओं को स्पर्श करती हैं जो चुपचाप मनुष्य के भीतर बहते हैं। बिना कोई शोर मचाए, बिना किसी दिखावे के। ‘अनछुए दरीचे’ की प्रत्येक कथा में एक अनकही वेदना, एक अनसुलझी पीड़ा और एक अव्यक्त आकांक्षा अपनी पूरी सादगी के साथ पाठक के हृदय को स्पर्श करती है।
यह एक ऐसी किताब है जो जीवन के अनछुए पहलुओं, जटिल भावनाओं और मानवीय संवेदनाओं को सहज और मार्मिक कहानियों के ज़रिए पाठकों तक पहुँचाती है। यह किताब केवल एक कथा-संग्रह नहीं है, बल्कि एक ऐसा संवेदनशील संसार है जिसमें इंसानी रिश्तों की नमी, सामाजिक विसंगतियों की गूँज और भीतर छुपे सपनों की धीमी-धीमी धड़कनें साफ सुनाई देती हैं। डॉ. भटनागर, जो एक अनुभवी और सच्ची संवेदनाओं को शब्दों में पिरोने वाली लेखिका हैं, ने इस संग्रह में जीवन के उन दरवाज़ों को खोला है जिन पर अक्सर समय की धूल जम जाती है। यह समीक्षा इस किताब के हर पहलू को सरल भाषा में समझाने की कोशिश है, ताकि इसे हर पाठक दिल से महसूस कर सके।
‘अनछुए दरीचे’ की कहानियाँ जीवन की गहराइयों में उतरने वाली हैं। हर कहानी एक नए दरीचे की तरह है, जहाँ से ज़िंदगी के किसी अनदेखे पहलू की झलक मिलती है। संग्रह की पहली कहानी ‘पत्थर’ में इंसान की संवेदनहीनता और भीतर छिपे दर्द को दिखाया गया है। ‘आईना’ कहानी आत्ममूल्यांकन की गहरी ज़रूरत को उजागर करती है, जहाँ इंसान को खुद से नज़र मिलाने की हिम्मत करनी पड़ती है। ‘बस एक औरत’ में औरत के भीतर के संघर्ष और उसकी अनकही पीड़ाओं को बेहद मार्मिकता से उकेरा गया है। ये कहानियाँ केवल किस्से नहीं हैं, ये जीती-जागती ज़िंदगियों की परतें हैं जो पाठक के दिल को छूती हैं।
‘शुतुरमुर्ग’ जैसी कहानी में सामाजिक सच्चाइयों से आँख चुराने की प्रवृत्ति पर करारा प्रहार किया गया है। वहीं ‘घर वापसी’ जैसी कथा घर की ओर लौटने की गहरी चाह, जड़ों से जुड़े रहने की आवश्यकता को महसूस कराती है। ‘फैमिनिस्ट’ कहानी आधुनिक समाज में नारी विमर्श की जटिलताओं को बेहद सशक्त और सजीव रूप में प्रस्तुत करती है। ‘एक नई दुनिया’ में नई सोच, नए सपनों और नए रिश्तों की ओर बढ़ने का जज़्बा दिखता है, तो ‘मिस्टर एंड मिसेज़ सक्सेना’ में एक साधारण मध्यमवर्गीय दंपत्ति की ज़िंदगी के छोटे-छोटे सुख-दुखों का कोमल चित्रण किया गया है।
इन कहानियों की सबसे बड़ी खूबी है इनका सहज प्रवाह और भावनात्मक गहराई। डॉ. भटनागर ने अपनी भाषा को इतना सहज और आत्मीय रखा है कि हर कहानी सीधे दिल से दिल तक पहुँचती है। उनकी शैली में नाटकीयता नहीं, बल्कि एक धीमी, आत्मीय धारा बहती है जो पाठक को भीतर से भीगने पर मजबूर कर देती है। संवाद इतने स्वाभाविक हैं कि पात्रों की आवाज़ें हमें अपने आसपास सुनाई देती हैं। कहानियाँ छोटी-छोटी घटनाओं में बड़ी बात कह जाती हैं, बिना शोर किए, बिना दिखावा किए।
‘अनछुए दरीचे’ में हर कहानी अपने साथ एक सवाल लेकर आती है। कभी जीवन के अर्थ को लेकर, कभी रिश्तों की जटिलताओं को लेकर, कभी सपनों और हकीकत के बीच के संघर्ष को लेकर। लेकिन सबसे सुंदर बात यह है कि ये कहानियाँ केवल दुख या टीस नहीं छोड़तीं, बल्कि आशा, साहस और पुनर्निर्माण की एक नर्म लौ भी जगाती हैं। डॉ. भटनागर का लेखन पाठक को तोड़ता नहीं, बल्कि उसे जीवन को और गहराई से समझने की प्रेरणा देता है।
इन कहानियों में औरत के जीवन, उसकी पहचान और उसकी जद्दोजहद को भी अत्यंत संवेदनशीलता से उकेरा गया है। ‘बस एक औरत’ और ‘फैमिनिस्ट’ जैसी कहानियाँ औरत की भीतरी लड़ाइयों और बाहरी दुनिया से जूझने के साहस का अद्भुत चित्रण करती हैं। साथ ही, संग्रह में सामाजिक परिवर्तन की एक धीमी पर ठोस पुकार भी सुनाई देती है, जो इसे केवल भावनाओं का नहीं, बल्कि विचारों का भी संग्रह बनाती है।
डॉ. भटनागर की भाषा में एक सहज प्रवाह है, जैसे शांत नदी अपने आप बहती चली जाती है। कहीं कोई कृत्रिमता नहीं, कहीं कोई भाषाई आडंबर नहीं। शब्द इतने सरल और गहन हैं कि वे सीधे हृदय के दरीचों में प्रवेश कर जाते हैं। शैली में जो सच्चाई और आत्मीयता है, वह ‘अनछुए दरीचे’ को विशिष्ट बनाती है। संवाद इतने जीवंत हैं कि पात्र पाठक के सामने मानो जीवंत हो उठते हैं। उनकी साँसे, उनकी मौन व्यथाएँ, सब कुछ अनुभव किया जा सकता है।
‘अनछुए दरीचे’ की विशेषता इसकी मौन संवेदना है। यह संग्रह बताता है कि सबसे गहरे दुख, सबसे मधुर स्मृतियाँ, और सबसे सुंदर सपने अक्सर उन्हीं दरवाजों के पीछे पलते हैं जो हम शायद ही कभी खोल पाते हैं। डॉ. भटनागर ने इन बंद दरवाजों को बहुत कोमलता से खोला है, बिना कोई शोर किए, बिना कुछ तोड़े। केवल मन की उस कोमल चाबी से जिसे अनुभव कहते हैं।
‘अनछुए दरीचे’ का सबसे बड़ा आकर्षण इसकी मानवीयता है। यह किताब नायकों की नहीं, आम इंसानों की कहानियाँ सुनाती है। उनके डर, उनकी आशाएँ, उनकी हिम्मत और उनकी कमज़ोरियों की कहानियाँ। यह किताब बताती है कि हर साधारण ज़िंदगी में भी एक असाधारण कहानी छिपी होती है।
डॉ. पूर्णिमा भटनागर ने इस संग्रह के माध्यम से साहित्य प्रेमियों को जीवन की उन परतों से रूबरू कराया है जिन्हें अक्सर हम नज़रअंदाज़ कर देते हैं। ‘अनछुए दरीचे’ हर उस पाठक के लिए एक अनमोल अनुभव है जो ज़िंदगी को उसकी पूरी संवेदनशीलता के साथ महसूस करना चाहता है।
‘अनछुए दरीचे’ एक ऐसी किताब है जो पाठक के मन के गहरे कोनों को छू लेती है। डॉ. भटनागर ने इसमें जो संवेदनाएँ, अनुभव और दृष्टि पिरोई हैं, वे न केवल साहित्य का, बल्कि जीवन का भी सुंदर दस्तावेज़ बन गई हैं। इस सुंदर रचना के लिए डॉ. पूर्णिमा भटनागर को हार्दिक शुभकामनाएँ और शब्दांकुर प्रकाशन को साधुवाद, जिन्होंने इसे इतने सुंदर रूप में प्रस्तुत किया।

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