शब्दांकुर प्रकाशन

Vaidik Bhavanjali by Dr. Brijendra Nigam

ISBN -

Subject -

Genre -

Language -

Edition -

File Size -

Publication Date -

Hours To Read -

Pages -

Total Words -

978-81-951824-8-0

Poetry

Nature

Hindi

1st

19.10 MB

April 2021

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104

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ABOUT BOOK

देश और समाज आज ऐसे संक्रांति काल से गुजर रहा है जहां बहुत उथल पुथल है। सामाजिक मर्यादाएं तिरोहित होकर नयी परिभाषाएं आकार ले रही हैं। राष्ट्रधर्म पर राजधर्म हावी हो रहा है, मानवधर्म अपनी स्थिती से च्युत होकर सत्ता लोलुप अवसरवादियों के हाथों में खंड खंड बंट गया और वो उससे अपना मनचाहा हथियार बना रहे हैं। बचपन असुरक्षित, केरीयर की दौड़ में समाप्त किलकारियां, युवा दिशाहीन, वृद्ध निराश, कराहते हुए किसान, मातम मनाते मजदूर, विलाप करते हुए विद्यार्थी, स्त्रीयों के सतीत्व का अस्तित्व अप्रासंगिक और ऐसे में हमारा नेतृत्व बस येन केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज होने को आतुर है। जहां न्याय स्वयं कटघरे में खड़ा हो वहां कौन किसका भरोसा करे।गोरक्ष, कबीर, जिद्दू, मानव समाज में किसी कालखंड से चली आ रही आस्था व विश्वास को अपनी वैज्ञानिक सोच से परिमार्जित करते हैं तो व्यवसाय बुद्धि वाले कर्मकांडी समूह के लोग उनके विरोध में उठ खडे होते हैं और अंधानुकरण करने वाले अनपढ लोगों के मानस में गहरे बैठ चुकी मान्यताएं कहीं कहीं तिरोहित होती है लेकिन वे उन कर्मकांडियों के मकडजाल से निकल नहीं पाते। साधन व शक्ति सम्पन्न उस संगठित समूह का विरोध उन्हें वेद विरोधी, अहिंदू, गैर सनातनी और ऐसी ही उपमाओं से विद्रुपित करता है। विचारणीय बात यह है कि जब वर्षा के वेदिक देवता इन्द्र को श्रीकृष्ण नकारते हैं और वन, वृक्ष व पर्वतों को बारिश से वैज्ञानिक आधार पर संबद्ध करते हैं तो वहां इन्द्र को पराजित कर के भी पुनः स्थापित करने का प्रपंच करते हैं।भ्रांतियों के ऐसे ही अनुत्तरित प्रश्न रूपी बादलों से आछादित ये एक मुट्ठी आसमान और कुछ समाधान आपके हाथ में है जो कहीं कहीं अनुभवी नाविकों की तरह संभाले हुए जलपोत की तरह विद्वानों से चर्चा के रूप में है तो कहीं कहीं विचारों के भंवर में भटकती अकेली नौका के रूप में। दोनों ही प्रकार के यानों में आपका स्वागत है, यात्री नहीं भागीदार बनें।

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DR.BRIJENDRA NIGAM

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